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Tuesday 30 April 2019

स्टीफ़न का नियम और उसका खगोलभौतिकी मे महत्व

लेखक : ऋषभ

इस लेख मे हम भौतिकी के एक बहुत ही महत्वपूर्ण नियम की चर्चा कर रहे है जो कि बहुत ही सरल है इसके खगोलभौतिकी मे बहुत से प्रयोग है। यह बहुत लोकप्रिय नियम नही है और हम मे से बहुत इसके महत्व को समझ पाने मे असफ़ल रहते है। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के छठे लेख मे हम स्टीफ़न के नियम और उसका खगोलभौतिकी मे महत्व को जानेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

स्टीफ़न के नियम का गणितिय रूप

स्टीफ़न के नियम का अर्थ सरल है। स्टेफॉन वोल्‍ज़मान नियमानुसार इकाई समय में सभी तरंगदैर्घ्य परास में कृष्णिका(ब्लैकबाडी )द्वारा प्रति इकाई पृष्ठिय क्षेत्रफल द्वारा विकरित कुल ऊर्जा कृष्णिका के ऊष्मगतिकीय ताप के चतुर्थ घात के अनुक्रमानुपाती होता है। सरल शब्दो मे किसी ब्लैकबाडी (black body) की सतह के प्रति इकाई क्षेत्रफ़ल द्वारा सभी तरंगदैर्ध्य पर उत्सर्जित विकिरण की कुल ऊर्जा उसके तापमान के चतुर्घात के अनुपात मे होती है।

 स्टेफॉन वोल्‍ज़मान सूत्र

स्टेफॉन वोल्‍ज़मान सूत्र

L = तारे की दीप्ति (luminosity)। वास्तविकता मे दीप्ति किसी तारे द्वारा कुल उत्पन्न का माप है। इस नियम को स्टेफॉन वोल्‍ज़मान नियम भी कहते है।

हमारा उद्देश्य इस नियम के पीछे के बुनियादी सिद्धांत को समझना है, इसलिये हम खाली स्लेट से शुरुवात करते है।

एक कृष्णिका या ब्लैकबाडी क्या है ?

एक ऐसी वस्तु जो अपने पृष्ठ पर आपतित सभी तरंगदैध्यो के विकिरणो का पूर्ण:  अवशोषण और पुन: पूर्ण  उत्सर्जन कर देती है उसे कृष्णिका कहते है। भौतिक विज्ञान में कृष्णिका पदार्थ की एक आदर्शीकृत अवस्था है, जो अपने ऊपर पड़ने वाले सभी विद्युत चुम्बकीय विकिरण अवशोषित कर लेता है। कृष्णिका एक विशेष और सतत वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) में विकिरण को अवशोषित और गर्म होने पर फिर से उत्सर्जित करते हैं। सामान्यत: प्रकाश का एक अच्छा अवशोषक प्रकाश का एक अच्छा उत्सर्जक भी होता है इसलिये एक आदर्श अवशोषक को एक आदर्श विकिरण उत्सर्जक भी होना चाहीये। लेकिन साथ मे एक आदर्शअवशोषक द्वारा प्रकाश का परावर्तन भी नही होगा इसलिये वह काला दिखाई देगा, जिससे उन्हे कृष्णिका(ब्लैक बाडी) कहते है।

लेकिन सूर्य को कृष्णिका (ब्लैक बाडी) क्यों कहते है ? सूर्य की कोई ठोस सतह नही है। इसलिये सूर्य पर जो भी विकिरण आपतीत होता है पूरी तरह से समाप्त होने तक बिखरते(scattered) और अवशोषित होते रहता है। यह प्रक्रिया सूर्य को एक आदर्श अवशोषक बनाती है। लेकिन सूर्य एक आदर्श विकिरक(emitter) नही है। यह उसके वर्णक्रम से स्पष्ट है।

संतरे रंग की रेखा आदर्श कृष्णिका को दर्शाती है, जबकि लाल रेखा सूर्य के वर्णक्रम को दर्शाती है। सूर्य के वर्णक्रम मे आदर्श कृष्णिका के वर्णक्रम से कई विचलन है। सूर्य को एक आदर्श कृष्णिका के समीप माना जाता है।

सूर्य का तापमान

इस नियम का प्रतिपादन जोसेफ़ स्टीफ़न(Josef Stefan) ने 1879 मे किया था। उनसे पहले एक अन्य वैज्ञानिक जे सोरेट (J. Soret) ने एक खूबसूरत प्रयोग किया था जिसमे उन्होने एक पतली प्लेट को 2000K तापमान तक गर्म किया था। उसके बाद उन्होने इस प्लेट को इतनी दूरी पर रखा कि उसका सम्मुख कोण और सूर्य का सम्मूख कोण (subtended angle)समान था। इस प्रयोग से उन्होने पाया कि सूर्य से उत्सर्जित इस पतली प्लेट से विकिरित ऊर्जा के घनत्व(energy flux density) से 29 गुणा अधिक है। स्टीफ़न ने इन आंकड़ो का प्रयोग किया और उसके आगे गये। उन्होने एक और कारक को जोड़ा। उन्होने अनुमान लगाया कि सूर्य से उत्सर्जित ऊर्जा का एक तिहाई भाग वातावरण द्वारा अवशोषण कर लिया जाता है। इसलिये सूर्य द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा का घनत्व पतली प्लेट से 29 गुणा अधिक नही, बल्कि 29×3/2 गुणा अधिक है अर्थात 43.5 गुणा अधिक है।

अब उन्होने इस मूल्य को अपने सूत्र(उपरोक्त) मे डाला। अर्थात सूर्य द्वारा विकिरित ऊर्जा पतली प्लेट द्वारा विकिरित ऊर्जा से 43.5 गुणा अधिक है। इसका अर्थ यह है कि सूर्य का तापमान पतली प्लेट के तापमान के 43.5 गुणा का चतुर्थमूल होगा। यह सरल गणित है, उपरोक्त सूत्र मे मूल्य रखीये। अब (43.5)1/4 =2.57 अर्थात सूर्य का तापमान पतली प्लेट के तापमान का 2.57 गुणा होगा। 2000K x 2.57 =5700K। यह एक अप्रत्याशित परिणाम था। यह सूर्य के तापमान से केवल 1.3% ही दूर था, जोकि 5778K है। स्टीफ़न ने माना था कि पृथ्वी का वातावरण सूर्य की ऊर्जा का एक तिहाई अवशोषित कर लेता है, यह अनुमान भी सही पाया गया। सूर्य की सतह के तापमान की गणना का यह पहला प्रयास था और मानवता के इतिहास मे यह एक मील का पत्थर था।

स्टीफ़न के नियम का खगोलभौतिकी मे महत्व

अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि स्टीफ़न का नियम खगोलभौतिकी मे महत्वपूर्ण क्यो है। आखीर हमने इसके प्रयोग से सूर्य का तापमान ज्ञात किया था। लेकिन इसकी सीमा सूर्य के तापमान तक ही नही है, इसके द्वारा अन्य तारों के तापमान और आकार की गणना की जा सकती है।

लेखक का संदेश

अब हम धीमे धीमे खगोलभौतिकी मे गहरा गोता लगाने जा रहे है। इस लेख का उद्देश्य किसी तारे की दीप्ती और उसके प्रभावी तापमान के मध्य के संबध की जानकारी देना था। अगले कुछ लेखों मे हम तारों का अध्ययन करेंगे। तारकीय खगोलभौतिकी(Stellar Astrophysics) एक महत्वपूर्ण तथा बड़े पैमाने पर अध्ययन किया जानेवाला विषय है। इस विषय मे करीयर बनाने के लिये भौतिकी मे मजबूत पकड़ चाहीये। इस लेख मे हमने केवल सतह को छुआ है। हमे आशा है कि आप इस लेख शृंखला का आनंद ले रहे है।

मूल लेख : THE STEFAN’S LAW AND ITS IMPORTANCE IN ASTROPHYSICS.

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.



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Saturday 27 April 2019

ब्लैक होल का चित्र मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक क्यों है?

लेखक : डॉ मेहेर वान

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर - अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर – अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

10 अप्रैल 2019 को जब “इवेंट होराइजन टेलेस्कोप” की टीम ने पहली बार ब्लैक होल का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया तो पूरी दुनियाँ वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि पर जोश ख़ुशी से झूम उठी। जिन्हें यह मालूम था कि कुछ ही समय में ब्लैक होल की सच्ची छवि दुनियाँ के सामने पेश की जाने वाली है वह बड़ी बेसब्री से वैज्ञानिकों की प्रेस कोंफ्रेंस का इंतज़ार कर रहे थे। ब्लैक होल की यह छवि कई कारणों से महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण थी। इस प्रयोग में आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” दांव पर लगी थी, साथ ही वह वैज्ञानिक ज्ञान भी दांव पर लगा था जो पिछले कई दशकों में ब्लैक होल से बारे में अर्जित किया गया था। ब्लैक होल की यह छवि जनता के सामने लाने से पहले वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक यह सुनिश्चित किया था कि उनके प्रयोगों और प्रक्रिया में कोई कमी तो नहीं रह गई। इस प्रक्रिया में पूरी दुनियां के वैज्ञानिक कई दशकों से लगे हुए थे। अतः जब वैज्ञानिक अपने प्रयोग और प्रक्रिया की सत्यता और त्रुटिहीनता के बारे सुनिश्चित हो गए तब यह छवि छः स्थानों पर प्रेस कोंफ्रेंस करके पूरी दुनिया के समक्ष प्रस्तुत की गई, ताकि प्रक्रिया में शामिल सभी वैज्ञानिकों और देशों को सफलता का पूरा क्रेडिट मिले। पूरी दुनियां की मीडिया ने इस घटना को प्रमुख खबर बनाया, क्योंकि यह मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है।

लेकिन भारतीय मीडिया वैज्ञानिकों की इस महान उपलब्धि को समझ नहीं पाया। हाल ही में एक खबर सत्याग्रह/स्क्रोल  (दिनांक- 21 अप्रैल, 2019) की वेबसाईट पर (विज्ञान कहता है कि ब्लैक होल का कोई फोटो नहीं लिया जा सकता, तो फिर यह क्या है?)–  पर प्रकाशित की गई जिसमें ब्लैक होल की छवि वाली घटना को इस प्रकार पेश किया गया जैसे कि यह कोई वैज्ञानिक घोटाला हुआ हो। यह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि निंदनीय है और भारतीय मीडिया की छवि ख़राब करने वाला है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि आँखें बंद करके ‘रात हो गई-रात हो गई’ चिल्लाने से सूरज की रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती, लेकिन बेवकूफी ज़रूर जगजाहिर होती है।

यह मानव इतिहास की महानतम घटना क्यों है?

सन 1784 में अंग्रेज खगोलविद ‘जॉन मिशेल’ ने एक ऐसे तारे की परिकल्पना की जो कि इतना भारी और अधिक घनत्व वाला था कि अगर प्रकाश भी उसके करीब जाए तो वह इस तारे के चंगुल से बाहर नहीं आ सकता। यहाँ प्रकाश का उदाहरण इसलिए दिया जाता है कि प्रकाश का स्थायित्व में द्रव्यमान शून्य और गतिमान अवस्था में अत्यधिक सूक्ष्म होता है। प्रकाश से हल्की वस्तु की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बाद आइन्स्टीन ने 1915 में “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” की स्थापना की जिसका इस्तेमाल आज खगोलशास्त्र से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक के तमाम विषयों को समझने में और उनका विश्लेषण करने में होता है। अनगिनत प्रयोगों और गणनाओं में आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” अब तक सही और सटीक साबित होती रही है। “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” आने के कुछ हो महीनों बाद वैज्ञानिक कार्ल स्वार्जचाइल्ड ने आइन्स्टीन के समीकरणों को हल करके कुछ नए निष्कर्ष निकाले। इन्हीं निष्कर्षों में ब्लैक होल के केंद्र से एक ऐसी दूरी का मान निकलता है जिसके अन्दर आइन्स्टीन के समीकरण काम नहीं करते। इसे वैज्ञानिक भाषा में सिंगुलारटी कहते हैं। बाद में इस दूरी को ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ कहा गया और इससे जो वृत्त बना उसे “इवेंट होराइजन” कहा गया। ऐसी गणनाएं की गईं कि ब्लैक होल ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ के तीन गुना दूरी से पदार्थ को और ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ की डेढ़ गुना दूरी से प्रकाश को अपनी और खींचकर निगल जाता है। इसके बाद पिछली सदी में सैद्धांतिक स्तर पर ब्लैक होल के बारे में बहुत साड़ी गणनाए की गईं जिनका मूल आधार आइन्स्टीन के समीकरण थे। चूँकि आइन्स्टीन से वह समीकरण खगोलविज्ञान और अन्तरिक्ष विज्ञान से लेकर विज्ञान की अन्य शाखों में इस्तेमाल हो रहे थे और सटीक साबित हो रहे थे इसलिए वैज्ञानिकों में उत्सुकता थी कि अगर उन्हें ‘इवेंट होराइजन’ नहीं दिखा तो आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” असफल हो जायेगी और पूरी भौतिकी में भूचाल आएगा। यह सब अब तक गणनाओं के स्तर पर ही था, इसलिए यहाँ एक सधे हुए सटीक प्रयोग की आवश्यकता थी जिसमें कुछ ठोस प्रमाण मिलें।

इस समस्या से निबटने के लिए विश्व भर के वैज्ञानिकों ने एक संगठन बनाया और एक साथ काम करने का निर्णय लिया।

इस वैज्ञानिक समस्या का विशालकाय होना

ब्लैक होल की छवि लेना की वैज्ञानिक समस्या कोई साधारण समस्या नहीं थी। इसमें कई ऊंचे स्तर की रुकावटें थीं, जिन्हें बिन्दुवार समझना चाहिए-

  1. ब्लैक होल की प्रकृति:

    वैज्ञानिक “इवेंट होराजन” देखना चाह रहे थे। इवेंट होराइजन वह जगह है जहां तक ब्लैक होल के आसपास प्रकाश पहुँच सकता है और ब्लैक होल द्वारा खींच नहीं लिया जाता। इस प्रकार यह प्रकाश ब्लैक होल को बाहर से एक तरह से ऐसे ढँक लेता है जैसे ब्लैक होल ने प्रकाश के कपडे पहन लिए हों। हालांकि ब्लैक होल को नहीं देखा जा सकता मगर इसके चारों और फैले प्रकाश की उन किरणों को देखा जा सकता है जो बस इवेंट होराइजन को छूकर निकल जाती हैं। अतः यह तय था कि ब्लैक होल को देखना संभव नहीं है मगर इवेंट होराइजन में प्रकाश से लिपटे हुए ब्लैक होल को देखना संभव है। इवेंट होराइजन के साथ ब्लैक होल की फोटो लेने का काम आसान नहीं था। इवेंट होराइजन में लिपटी प्रकाश किरणों को भी अपने टेलेस्कोप्स में समेट पाना आसान नहीं होता जिसे हम आगे समझेंगे।

  2.  ब्लैक होल की आकाश में स्थिति:

    सबसे पहले तो यह तय कर पाना आसान नहीं है कि ब्लैक होल कहाँ है? चूँकि यह प्रकाश को दबोच लेता है और हम किसी भी चीज को तब देख पाते हैं जब वह वस्तु प्रकाश को या तो उत्सर्जित करती है या परावर्तित करती है। ब्लैक होल की स्थिति जानने में ही वैज्ञानिकों को कई दशक लगे। अनेकों विशालकाय टेलेस्कोपों की सहायता से अनगिनत वैज्ञानिक पूरे आकाश की निगरानी रखते हैं। कई वर्षों तक एक गैलेक्सी में कई तारों का अध्ययन करने के बाद उन्हें पता चला कि वे तमाम तारे किसी ख़ास केंद्र बिंदु के चारों और चक्कर लगा रहे हैं जो कि चमकीला नहीं है। यह गैलेक्सी M87 थी। इसके तारे विशालकाय हैं। इतने भारी तारे खुद से कई गुना भारी पिंड के चारों और ही चक्कर लगा सकते हैं और वैज्ञानिकों ने गणना की कि यह ब्लैक होल होना चाहिए। इस तरह लम्बी और थकाऊ गणनाओं के बाद ब्लैक होल की संभव स्थिति पता चली।

  3. पृथ्वी से दूरी:

    गणनाओं और प्रयोगों के आधार पर यह पाया गया कि यह ब्लैक होल पृथ्वी से 5.5 करोड़ प्रकाशवर्ष दूर है। इस बात का मतलब यह है कि यह ब्लैक होल M87 गैलेक्सी में धरती से इतना दूर है कि प्रकाश को इससे धरती तक आने में 5.5 करोड़ वर्ष लग जाते हैं। इसका एक मतलब यह भी है हमने जिस प्रकाश के साथ इसकी छवि खींची है वह प्रकाश इस ब्लैकहोल से 5.5 करोड़ साल पहले चला था। मतलब जो छवि हमारे पास है वह इस ब्लैक होल की 5.5 करोड़ साल पुरानी फोटो है। यह तो हम सब जानते हैं कि दूर होते जाने पर वस्तुएं छोटी दिखाई देने लगती हैं। इसी प्रकार से यह ब्लैक होल भी पृथ्वी से बहुत दूर होने के कारण बहुत छोटा दिखाई दे रहा था। वैज्ञानिकों ने गणना की कि धरती से यह इतना छोटा दिखाई देता कि इसे देखने के लिए घरती के आकार के बराबर के दूरदर्शी की ज़रुरत पड़ती। धरती के आकार के बराबर का दूरदर्शी बना पाना मानव के हाथ से बाहर की बला है। वैज्ञानिक कई सालों तक यह सोचकर परेशान रहे की कि कैसे इस कठिनाई से पार पाया जाए। फिर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह बात सही है कि हम पृथ्वी के आकार का दूरदर्शी नहीं बना सकते लेकिन पूरी पृथ्वी पर जगह जगह लगे टेलेस्कोपों को एकजुट करके पृथ्वी के आकार का एक आभासी टेलेस्कोप बनाया जा सकता है। खगोल विज्ञान में यह तकनीक नयी नहीं है। भारत में ही गैलेक्सियों को देखने के लिए लगा GMRT यानी जाइंट मीटरवेव रेडियो टेलेस्कोप पूना के पास लगभग 25 किमी में फैला है, जिसमे छोटे छोटे कई टेलेस्कोप लगे हैं और उन सब टेलेस्कोपों को मिलाकर एक विशालकाय 25 किमी लम्बा टेलेस्कोप बनता है जो अन्तरिक्ष में दूरदूर तक फैले छोटे छोटे दिखने वाले पिंडों की फोटो खींचने में मदद करता है। इसमें कई टेलेस्कोपों से ली गई छवियों को एकसाथ मिलकर एक फोटो बनाई जाती है। यह एक पुरानी और पूरी तरह से स्थापित तकनीक है। हालांकि धरती जितने आभासी टेलेस्कोप के लिए कुछ अन्य तकनीकी कठिनाइयां थी जिन्हें दूर किया गया।

  4. टेलेस्कोप का डिजाइन:

    दुनिया के तमाम देशों के वैज्ञानिकों ने मिलकर दुनिया भर में फैले कई टेलेस्कोपों का एक समूह बनाया और उन्हें एक साथ सिंक्रोनाइज़ किया। एक और समस्या यह थी कि पृथ्वी तेज रफ़्तार से अपनी अक्ष पर घूमती है इसलिए छवियों में इस घूर्णन का प्रभाव भी ख़त्म करना था। इसके लिए वैज्ञानिकों ने कुछ दशक तक गणनाएं कीं ताकि प्रयोगों से त्रुटियों को हटाया जा सके। ख़ास समयों पर दुनियां भर के कई टेलेस्कोपों ने उस ख़ास बिंदु की फ़ोटोज़ लीं जहाँ ब्लैक होल होने की गणनाएं हुई थी। इस तरह कई हज़ार टेराबाईट का डेटा उत्पन्न हुआ। अब इस भारीभरकम डेटा को एक साथ मिलाकर देखने की बारी थी। इस डेटा को मिलाने का काम मैसच्यूसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की कंप्यूटर साइंस की पीएचडी की छात्रा केटी बौमन ने किया। इसके लिए उन्हें एक अल्गोरिदम बनानी पड़ी। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिकों में बहुत ख़ास ख्याल रखा कि वह कुछ ऐसी चीज़ न देख लें जो वह देखना चाह रहे थे बल्कि वह देखें जो कि वहां उपस्थित था। लम्बे संघर्ष के बाद जब वैज्ञानिक इस बात को लेकर तय हो गए कि सारे टेलेस्कोपों की मदद से ब्लैक होल रिंग ही बन सकती है तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।

 

इसके अलावा तमाम तकनीकी और वैगानिक चुनैतिया वैज्ञानिको के समक्ष थीं जिन्हें आम जनता को समझाना बहुत मुश्किल है।

इस फोटो में एक प्रकाशिक अंगूठीनुमा आकार में काला केंद्र छुपा हुआ है। यह ठीक वैसे ही है जिसकी गणनाये वैज्ञानिक एक सदी से भी अधिक समय से कर रहे थे। इस छवि में साफ़ देखा जा सकता है कि प्रकाशिक इवेंट होराइजन में अंधकारमय ब्लैक होल छुपा हुआ है। हालांकि इस प्रक्रिया में तमाम बड़ी वैज्ञानिक रुकावटें थीं और ब्लैक होल की छवि उतारना असंभव माना जाता रहा लेकिन वैज्ञानिकों ने चतुराई से यह कर दिखाया। दुनिया भरके विद्वान इसे मानव जाति की सर्वकालिक सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिन रहे हैं। विज्ञान का सर्वकालिक काम असंभव लगने वाली बात को संभव बनाना ही तो है। और चुनौती जितनी बड़ी हो जीत उतनी ही बड़ी मानी जाती है। अंततः: यह ब्लैक होल की पहली छवि है समय आने पर बेहतर छवियाँ भी हम मानव खींच पायेंगे ऐसा विश्वास है।

 

लेखक का परिचय

डाक्टर मेहर वान IIT खड़गपुर के एडवांशड टेक्नालाजी सेंटर मे कार्यरत है।

वेबसाईट : https://meherwan.com/

 



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Wednesday 24 April 2019

लालविचलन(Redshift) के तीन प्रकार और उनका खगोलभौतिकी मे महत्व

लेखक : ऋषभ

इस शृंखला के दूसरे लेख मे हमने देखा कि किस तरह से किसी खगोलभौतिक वैज्ञानिक के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic Spectrum) ब्रह्माण्ड के रहस्यो को समझने के लिये एक महत्वपूर्ण और उपयोगी उपकरण है। किसी भी खगोलीय पिंड के वर्णक्रम से हम बहुत सी बहुतसी महत्वपूर्ण जानकारी निकाल सकते है। उदाहरण के लिये यदि हम किसी तारे के वर्णक्रम का अध्ययन कर हम उसके तापमान, सतह पर गुरुत्वाकर्षण, तत्वों की उपलब्धता, घनत्व, विकास का चरण और इस जैसी अनेक जानकारी प्राप्त कर सकते है। स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक हमे उस पिंड के आकाशगंगा मे विचरण के बारे मे भी जानकारी देती है। मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’  शृंखला के पांचवे लेख मे हम तीन तरह के लाल विचलन(Redshifts) और उनके खगोल विज्ञान मे महत्व को समझेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम को देख चुके है उसे भलीभांति समझते है। किसी प्रकाश के स्रोत को लिजिये। वह सूर्य हो सकता है या आपके टेबललैंप का बल्ब। इस प्रकाश का एक विशिष्ट रंग है। प्रकाश के हर रंग के साथ तीन चीजे जुड़ी है, तरंगदैर्ध्य, आवृत्ति तथा ऊर्जा।

सबसे पहले हम तरंगदैर्ध्य तथा आवृत्ति को समझते है। प्रकाश को नीचे दिये गये चित्र से समझीये:

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

लाल रेखा के उपर का भाग शीर्ष (crests)तथा नीचे का भाग गर्त (troughs) कहलाता है। किसी तरंग के दो लगातार शीर्ष के मध्य की क्षैतिज दूरी तरंगदैर्ध्य (Wavelength) कहलाती है। किसी शीर्ष या गर्त की अधिकतम लंब दूरी तरंग का आयाम(amplitude ) कहलाती है। एक शिर्ष तथा उससे लगा हुआ गर्त मिलकर एक तरंग चक्र(wave-cycle) बनाते है। किसी तरंग की आवृत्ति एक सेकंड मे बनने वाली तरंग (wave-cycle) की संख्या को कहते है। उदाहरण के लिये यदि हम चित्र मे दिखाई गई तीन भिन्न तरंग (एक उपर और उसके नीचे की दो तरंग) को देखे तो हम कह सकते है कि

  1. पहली तरंग का तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक है क्योंकि उसके दो लगातार शीर्ष या गर्त के मध्य अधिकतम क्षैतिज दूरी है।
  2. तीसरी तरंग की आवृत्ति सर्वाधिक है क्योंकि एक सेकंड मे सर्वाधिक तरंगचक्र बन रहे है।
  3. तरंगदैर्ध्य जितनी अधिक होगी आवृत्ति उतनी कम होगी। तरंगदैर्ध्य तथा आवृत्ति विलोमानुपात (inverse) मे होते है।

 

हम विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम के दृश्य भाग को देखते है। दृश्य प्रकाश का तरंगदैर्ध्य 400 nm (1 nm = 10-9 m) से 800 nm के मध्य होता है। 400 nm पर बैंगनी रंग तथा 800 nm पर लाल रंग होता है।

लाल विचलन क्या है (What Is Redshift)?

मान लिजिये की स्रोत किसी मोनोक्रोमेटीक स्रोत के जैसे एक विशिष्ट रंग के प्रकाश का एक विशिष्ट आवृत्ति पर उत्सर्जन करता है। इसका अर्थ यह नही है कि निरीक्षण की गई तरंगदैर्ध्य उत्सर्जित की गई तरंगदैर्ध्य के समान हो। यदि निरीक्षण की गई तरंगदैर्ध्य अधिक हो तो उसे लाल विचलन कहते है, यदि वह कम हो तो वह नीला विचलन(Blueshift) कहलाता है।

मध्य वाले वर्णक्रम मे कोई विचलन नही है। जबकि उपर वाले वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाये लाल रंग की ओर विचलित हुई है और निचले वर्णक्रम मे नीले रंग की ओर

मध्य वाले वर्णक्रम मे कोई विचलन नही है। जबकि उपर वाले वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाये लाल रंग की ओर विचलित हुई है और निचले वर्णक्रम मे नीले रंग की ओर

उपर दिये गये चित्र मे मध्य का वर्णक्रम प्रकाश स्रोत द्वारा वास्तविक रूप से उत्सर्जित है। यदि हम उपर के वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाओं (dark absorption lines) को देखें तो हम पायेगे कि इनसे संबधित रेखाये लाल रंग की ओर विचलीत हो गई है। जबकि नीचले वर्णक्रम मे वह नीले रंग की ओर विचलीत हुई है। यह प्रभाव भले ही दृश्यप्रकाश से संबधित ना हो, तरंगदैर्ध्य मे बढोत्तरी/कमी हमेशा लाल/निला विचलन कहलाती है। लाल/नीला विचलन कई खगोलभौतिकीय प्रक्रियाओं से उत्पन्न होता है। खगोल भौतिकी मे लाल विचलन को z से दर्शाया जाता है। इसका साधारण समीकरण : 1+z = निरीक्षित तरंगदैर्ध्य /वास्तविक तरंगदैर्ध्य । z का धनात्मक मूल्य लालविचलन और ऋणात्मक मूल्य नीला विचलन दर्शाता है।

लाल विचलन की व्याख्या

आप सोच रहे होंगे कि इस विचलन मे मानक संदर्भ(standard reference) क्या है ? हम लाल विचलन को ज्ञात करने के लिये किस संदर्भ वर्णक्रम से तुलना कर रहे है ? यह एक अच्छा और महत्वपूर्ण प्रश्न है। हर तत्व का अपना हस्ताक्षर वर्णक्रम होता है। ब्रह्मांड मे सर्वाधिक पाया जाने वाला तत्व हायड्रोजन है। इसलिये यदि हम किसी दूरस्थ आकाशगंगा के हायड्रोजन वर्णक्रम को देखते है और यदि उस वर्णक्रम की रेखाये हमारी प्रयोगशाला के वर्णक्रम से मेल खाती है तो इसका अर्थ है कि लाल विचलन नही हओ। लेकिन यदि ये रेखाये लाल रंग की ओर एक निश्चित दूरी पर है तब उसमे लालविचलन है और वह स्रोत हमसे दूर जा रहा है।

लाल विचलन

लाल विचलन

अब हम तीन प्रकार के लाल विचलन को देखते है और उसके खगोलभौतिकी मे महत्व को समझते है।

लालविचलन के प्रकार (Types of Redshifts)

1. सापेक्षीय लाल विचलन (Relativistic Redshift) या डाप्लर प्रभाव (Doppler Effect)

हम सभी ध्वनि तरंगो मे डाप्लर प्रभाव से परिचित है। यदि ध्वनि स्रोत हमारी ओर आ रहा है तो उसकी आवृत्ति बढ़ती है, जबकी दूर जाने पर वह घटती है। खगोलभौतिकी मे भी डाप्लर प्रभाव समान है लेकिन यह प्रकाश से संबधित है। ब्रहांड मे हर पिंड सापेक्षिय गति कर रहा है। तारे और आकाशगंगाये एक दुसरे के सापेक्ष गतिमान है। यदि किसी तारे/आकाशगंगा के वर्णक्रम मे लाल विचलन है, इसका अर्थ है कि वह हम से दूर जा रहा है। सापेक्षिय डाप्लर प्रभाव के सूत्र से हम उस तारे या आकाशगंगा के हमसे दूर जाने की गति की गणना कर सकते है। जब हमने अपनी पड़ोसी आकाशगंगा देव्यानी(एंड्रोमीडा) के वर्णक्रम को देखा तो पाया कि उसमे नीलाविचलन है। यह आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा मंदाकीनी(milky way) की ओर 140 किमी/घंटा की गति से आ रही है। अगले पांच अरब वर्ष पश्चात ये दोनो आकाशगंगा एक दूसरे मे विलिन होकर एक बड़ी आकाशगंगा बनायेंगी।

2. गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

इसतरह का लाल विचलन साधारण सापेक्षतावाद का परिणाम है। गुरुत्विय लाल विचलन के अनुसार जब फ़ोटान कम गुरुत्विय विभव वाले क्षेत्र से उच्च विभव वाले क्षेत्र मे यात्रा करता है तो उसकी ऊर्जा मे कमी होती है। यदि कोई तारा अपनी सतह एक विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश का उत्सर्जन करता है और हम उस तारे के वर्णक्रम का उसकी सतह से दूर अध्ययन करते है तो उसमे लाल विचलन मिलेगा। उस तारे के गुरुत्वाकर्षण से बच निकलने के प्रयास मे उस फोटान की ऊर्जा कम हुई है जिसका अर्थ है तरंगदैर्ध्य मे बढ़ोत्तरी। समझ मे नही आया ? इसे किसी बच्चे द्वारा सीढीयों को चढ़ने से थकने के जैसा मान लिजिये। ध्यान दिजिये कि फ़ोटान की ऊर्जा कम हो रही है, उसकी आवृत्ति भी कम होगी लेकिन तरंगदैर्ध्य बढ़ेगी।

गुरुत्विय लाल विचलन की मात्रा, उस पिंड के घनत्व पर निर्भर है। घने पिंड जैसे श्वेत वामन(white dwarfs) तथा न्युट्रान तारों मे सामान्य तारों जैसे सूर्य की तुलना मे अधिक लाल विचलन होता है। ब्लैक होल(श्याम विवर) का गुरुत्विय लाल विचलन अनंत(infinite) होता है। इस तरह का लालविचलन दर्शाता है कि फोटान का द्रव्यमान होता है जोकि स्थिर द्रव्यमान (rest mass) नही है, बल्कि गुरुत्विय द्रव्यमान(gravitational mass)। यह आइंस्टाइन के साधारण सापेक्षतावाद सिद्धांत(Einstein’s General Relativity)का एक शास्त्रीय प्रायोगिक प्रमाण है।

गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

3. ब्रह्मांडीय लाल विचलन( Cosmological Redshift)

ब्रह्मांडीय लाल विचलन वास्तविकता मे अंतरिक्ष के सतत विस्तार का परिणाम है। 1920 एडवीन हब्बल ने पाया था कि जो आकाशगंगा सूदूर अंतरिक्ष मे हमसे जितनी दूर है उतनी तेजी से हम से दूर जा रही है। इसे हब्बल का नियम कहते है। यह एक निरीक्षण किया हुआ नियम है और ब्रह्मांड के सतत विस्तार को प्रमाणित करता है। अंतरिक्ष अपने आप मे अपना विस्तार कर रहा है। यह एक तथ्य है कि दूरस्थ आकाशगंगाओं के वर्णक्रम ने ही हमे ब्रह्मांड के सतत विस्तार का प्रमाण दिया है, इस वर्णक्रम मे अत्याधिक लाल विचलन पाया गया है।

लेकिन हमे यह ध्यान रखना चाहिये कि स्थानीय डाप्लर लाल विचलन और ब्रह्मांडीय लाल विचलन मे अंतर है। दो आकाशगंगाओ मे मध्य सापेक्ष गति से ब्रह्मांडीय लाल विचलन उत्पन्न नही होगा। फोटान मे लाल विचलन उनके द्वारा सतत विस्तार कर रहे खगोलीय काल-अंतराल मे यात्रा से उत्पन्न हो रहा है। इस सतत विस्तार से दो एक दूसरे से दूर जा रही आकाशगंगाये प्रकाशगति से भी तेज एक दूसरे से दूर हो सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि वे विशेष सापेक्षतावाद(special relativity) का उल्लंघन कर रही है।

संक्षेप मे

लाल विचलन के तीन प्रकार

लाल विचलन के तीन प्रकार

इस शृंखला मे पहले : खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

लेखक का संदेश

आशा है कि इस लेख ने तीन तरह के लाल विचलन के मध्य अंतर स्पष्ट कर दिया होगा। सभी खगोलभौतिक वैज्ञानिक बनने वाले के लिये मेरा एक संदेश है, खगोलभौतिकी फ़ैंसी विज्ञान जैसे समय यात्रा, श्वेत विवर(white holes), वर्महोल या ब्लैक होल से यात्रा जैसा ही नही है। वास्तविक चित्र काफ़ी भिन्न है। खगोलभौतिकी एक ऐसा विषय है जिसमे आप ब्रह्मांड की किसी विशेष गतिविधि/प्रक्रिया को समझने के लिये भौतिकी के नियमो का प्रयोग करते है। यदि आप एक खगोल वैज्ञानिक बनना चाहते है तो सबसे पहले आप भौतिकी और गणित पर ध्यान केंद्रित किजिये। इस क्षेत्र मे सफ़लता के लिये स्पेक्ट्रोस्कोपी(Spectroscopy), विद्युतगतिकी(Electrodynamics), सांख्यकिय यांत्रिकी( Statistical Mechanics), सापेक्षतावाद(Theory of Relativity), प्रकाशिकी(Optics) तथा क्वांटम यात्रीकी (Quantum Mechanics) महत्वपूर्ण है। गगनचुंबी इमारत की नींव मजबूत होनी चाहीये।

मूल लेख : THREE TYPES OF REDSHIFTS & THEIR IMPORTANCE IN ASTROPHYSICS.

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

 



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Tuesday 23 April 2019

खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

लेखक : ऋषभ

मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ लेख शृंखला मे यह चतुर्थ लेख है, और अब हम ब्रह्मांड को विस्तार से जानने के लिये तैयार है। विज्ञान की हर शाखा मे मापन की अपनी इकाईयाँ होती है। दूरी मापन की इकाईयाँ, विज्ञान की हर शाखा मे आवश्यकतानुसार प्रयोग की जाती है। उदाहरण के लिये एक पदार्थ वैज्ञानिक अधिकतर माइक्रान (10-6m)मे मापन करेगा, वहीं आण्विक भौतिक वैज्ञानिक अन्गस्ट्राम (10-10 m) मे, वहीं एक नाभिकिय फ़र्मी(10-15 m) मे मापन करेगा। हम जानते है कि दूरी मे मापन के लिये मानक SI इकाई मीटर(m) है लेकिन यह इकाई विज्ञान की हर शाखा मे प्रयोग होने के लिये सुविधाजनक नही है। किसी परमाणु के व्यास को मीटर या किलोमीटर मे मापना भद्दा होगा। इस लिये अध्ययन और उपयोग के अनुसार इकाईयों का चयन आवश्यक होता है। तो खगोलशास्त्र मे दूरी मापन के लिये किस इकाई का प्रयोग हो ? इस लेख मे हम खगोलीय इकाई(astronomical unit-AU), प्रकाशवर्ष(light year- ly) और पारसेक(parsec) के बारे मे जानेंगे।

आप इस शृंखला के सारे लेख यहाँ पढ़ सकते है

दूरी मापन और इकाईयाँ

क्वांटम प्रणालीयों कि विपरीत ब्रह्माण्ड अत्यधिक विशाल है। इतना विशाल कि किलोमीटर बहुत छॊटी इकाई है। इसलिये खगोलशास्त्रीयों ने दूरी के मापन के लिये एक नई इकाई प्रणाली बनाई। इस लेख मे हम इस प्रणाली की तीन मुख्य इकाईयों की चर्चा करेंगे जोकि आपको अधिकतर खगोलशास्त्र के लेखों और किताबों मे मिलेंगी। ये तीन इकाईयाँ है, प्रकाश वर्ष , पारसेक और खगोलीय इकाई(Astronomical Unit (AU))। इनका प्रयोग दूरी के मूल्य के अनुसार होता है। सौर मंडल के अंदर ग्रहों के मध्य की दूरी के लिये खगोलीय इकाई का प्रयोग होता है। समीप के तारों की दूरी की चर्चा के लिये प्रकाशवर्ष तथा पारसेक का प्रयोग होता है, जबकि आकाशगंगाओं के मध्य की दूरी के लिये किलोपारसेक और मेगापारसेक का प्रयोग किया जाता है।

खगोलीय इकाई : Astronomical Unit (AU)

खगोलीय इकाई सूर्य और पृथ्वी के मध्य की औसत दूरी को कहते है। इसका मूल्य 149,597,870,700 metres या 15 करोड़ किमी (9.3 करोड़ मील) है।

हम जानते है कि पृथ्वी( या किसी अन्य ग्रह) की सूर्य परिक्रमा की कक्षा पूर्ण वृत्ताकार नही है। यह दिर्घवृत्ताकार(elliptical) है। इसलिये पृथ्वी की सूर्य से दूरी वर्ष भर बदलते रहती है। आरंभ मे खगोलीय इकाई की परिभाषा पृथ्वी की कक्षा की उपप्रधान अक्ष(semi-major axis) के तुल्य मानी गई थी। लेकिन 1976 मे अंतराष्ट्रीय खगोल संस्थान(International Astronomical Union (IAU)) अधिक शुद्धता तथा सुनिश्चतता के लुए इसे परिवर्तित किया। अब खगोलीय इकाई की परिभाषा एक द्रव्यमान रहित(शून्य द्रव्यमान) कण की ऐसी वृताकार कक्षा की त्रिज्या है जिसमे परिक्रमा के लिये लगने वाला समय 365.2568983 दिन या एक गासीयन वर्ष (Gaussian year) हो।

अधिक अचूकता के लिये एक खगोलीय इकाई(AU) वह दूरी है जिसपर हिलियोसेंट्रीक गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G*M☉) का मूल्य (0.017 202 093 95)² AU³/d² हो। M☉ = सूर्य का द्रव्यमान ।

खगोलीय इकाई (AU) का महत्व

यह ध्यान मे रखा जाना चाहिये कि गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G) तथा सूर्य का द्रव्यमान (M☉) का मूल्य अत्याधिक सटीक रूप से ज्ञात नही है। लेकिन इन दोनो का गुणनफ़ल अधिक सटिकता से ज्ञात है। इसलिये ग्रहीय गति की सारी गणना मुख्य रूप से खगोलीय इकाई और सौर द्रव्यमान (M☉) के प्रयोग से की जाती है। इस तरह से सारे परिणाम गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक पर निर्भर हो जाते है। इन स्थिरांको को मानक SI इकाईयों मे नही बदला जाता है क्योंकि इस परिवर्तन से अशुध्दता आ सकती है।

प्रकाशवर्ष (ly)

जुलियन वर्ष (365.25 दिन) और प्रकाशगति (299,792,458 m/s) के गुणनफ़ल को प्रकाशवर्ष कहा जाता है। यह समय और गति का गुणनफ़ल है, इसलिये यह वह दूरी है जिसे प्रकाश एक जुलियन वर्ष मे तय करता है। प्रकाशवर्ष का मूल्य 9.46 ट्रिलियन किमी या 63,241.077है। प्रकाशवर्ष यह कुछ अन्य इकाई प्रकाश सेकंड, प्रकाश मिनट या प्रकाशघंटा जैसी इकाईयों की मातृ इकाई है। जब हम कहते है कि कोई पिंड “प्रकाश-x” दूरी पर है, उसका अर्थ है कि वह दूरी जिसे तय करने मे प्रकाश x इकाई समय लेगा।

प्रकाश इकाई मे मापन

प्रकाश इकाई मे मापन

प्रकाशवर्ष का महत्व

प्रकाशवर्ष का खगोलशास्त्र मे अत्याधिक प्रओग होता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि जब हम कहते है कि यह पिंड इतने प्रकाशवर्ष दूर है तब हम यह भी जानते है कि हम उस पिंड की कितनी पुरानी छवि देख रहे है। यदि कोई पिंड 4 प्रकाशवर्ष की दूरी पर है, तो इसका अर्थ है कि उस पिंड से उत्सर्जित प्रकाश को हम तक पहुंचने मे 4 वर्ष लगे है। अर्थात हम उसकी 4 वर्ष पुरानी छवि देख रहे है। इसी तरह से सूर्य हमसे 500 प्रकाशसेकंड की दूरी पर है, यदि किसी कारण से सूर्य गायब हो जाये तो हमे 500 सेकंड बाद ही पता चलेगा।

पारसेक -Parsec (pc)

एक पारसेक का मूल्य 3.26 प्रकाशवर्ष है। अब आप सोच रहे होंगे कि प्रकाशवर्ष और पारसेक मे इतना कम अंतर है तो एक अतिरिक्त इकाई की क्या आवश्यकता ? चलिये देखते है।

खगोलशास्त्र मे किसी तारे की दूरी मापन की सबसे प्राचिन विधियों मे से एक पेरेलक्स (parallax) विधि है। इस विधि मे किसी तारे की आकाश मे स्तिथि के दो मापन के मध्य के कोण को मापा मापा जाता है। इसमे पहला मापन पृथ्वी के सूर्य के एक ओर होने पर है दूसरा छः माह बाद पृथ्वी के सूर्य के दूसरी ओर होने पर किया जाता है। इन दो मापनो के मध्य मे पृथ्वी की दोनो स्तिथियों के मध्य दूरी पृथ्वी और सूर्य के मध्य की दूरी का दोगुणा होती है। अब इन दोनो मापनो के मध्य के कोणो का अंतर पेरेलक्स कोण का दोगुणा होता है जोकि सूर्य तथा पृथ्वी से उस तारे तक बनने वाली रेखाओं के मध्य बनता है।

तारे की स्थिति का पृथ्वी की कक्षा मे सूर्य के दो ओर से मापन(पेरेलक्स विधि)

तारे की स्थिति का पृथ्वी की कक्षा मे सूर्य के दो ओर से मापन(पेरेलक्स विधि)

पेरेलक्स का मूल्य उस तारे द्वारा आकाश मे आभासीय गति की कोणीय दूरी का आधा होता है। इस चित्र मे तारे की स्तिथि D से, सूर्य की S से तथा पृथ्वी की स्तिथि E से दिखाई गई है और ये तीनो पिंड समकोण त्रिभूज बना रहे है। इसमे तारे की स्तिथि पृथ्वी की कक्षा के उपप्रधान अक्ष के सम्मुख कोण मे है।

अब हम कोण SDE तथा रेखा SE की दूरी का मूल्य(1 AU) जानते है। इस जानकारी के प्रयोग से त्रिकोणमिती का प्रयोग करते हुये, SD या ED का मूल्य जान सकते है। यदि सम्मुख कोण का मुल्य 1 आर्क सेकंड(arc second) होतो तारे की दूरी 1 पारसेक होगी। अब हम 1 पारसेक को परिभाषित करने की स्तिथि मे है। एक पारसेक अर्थात वह दूरी जिसपर 1 AU का सम्मुख कोण(subtends) 1 आर्कसेकंड हो।

पारसेक(parsec) का महत्व

खगोलभौतिकी मे पारसेक विधि दूरी के निर्धारण मे सबसे बुनियादी कैलीब्रेशन का महत्वपूर्ण चरण रही है। पृथ्वी पर आधारित दूरबीनो द्वारा पेरेलक्स मापन की सीमा 0.01 आर्कसेकंड है, जिससे 100 पारसेक से अधिक दूरी के तारों की दूरी का सटिक मापन इस विधि से संभव नही है। यह सीमा पृथ्वी के वातावरण के तारे की बनने वाली छवि मे आने वाले धुंधलेपन के कारण होती है। लेकिन अंतरिक्ष स्तिथ दूरबीनो के सामने यह सीमा नही होती है। अंतरिक्ष मे अत्याधिक दूरी के पिंडॊ की दूरी के मापन के लिये पारसेक, किलोपारसेक तथा मेगापारसेक का प्रयोग होता है।

इस शृंखला मे इससे पहले : दूरबीनो की कार्यप्रणाली का परिचय

लेखक का संदेश

मुझे आशा है कि मूलभूत खगोलभौतिकी लेख शृंखका के चौथे लेख ने आपको खगोलशास्त्र मे दूरी मापन की इकाईयों खगोलीय इकाई, प्रकाशवर्ष तथा पारसेक की के बारे मे आवश्यक जानकारी दे दी होगी। यह खगोलशास्त्र के अध्ययन मे एक बुनियादी लेख है। आने वाले लेखों मे हम इन इकाईयों का धड़ल्ले से प्रयोग करेंगे। इसलिये इस लेख का महत्व स्पष्ट हो जाता है। आशा है कि आप इन लेखों का आनंद ले रहे होंगे। इस विषय पर यदि आप कोई पुस्तक पढ़ना चाहते है तो हम बैद्यनाथ बसु(Baiydanaath Basu) की पुस्तक “Basics of Astrophysics” की सलाह देंगे जोकि अमेजन पर उपलब्ध है। यह सरल भाषा मे इस विषय की बुनियादी जानकारी को समेटे हुये लिखी पुस्तक है। आप इस पुस्तक का भरपूर आनंद उठायेंगे।

मूल लेख : THE CONCEPT OF ASTRONOMICAL UNIT, LIGHT YEAR AND PARSEC

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

 



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Sunday 21 April 2019

दूरबीनो की कार्यप्रणाली का परिचय

लेखिका:  सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)

आज हम जानते है कि हमारे आसपास का विश्व कैसा दिखता है, हम जानते हैं कि हमारा ब्रह्मांड कितना सुंदर है, हमने तेजस्वी देदीप्यमान सुपरनोवा देखे है और हमारे पास ब्लैकहोल का सबसे पहला चित्र है। सब कुछ हमारी दूरबीनों की बदौलत! हम निर्विवादित रूप से कह सकते है कि खगोलशास्त्र और खगोलभौतिकी के क्षेत्र मे सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाला उपकरण दूरबीन है। इस विषय मे रूचि रखने वाला कोई भी व्यक्ति कभी ना कभी किसी ना किसी दूरबीन का प्रयोग करेगा ही। प्रस्तुत है ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला का तृतीय लेख जो कि इस उपकरण को समर्पित है।

दूरबीनों ने हमे ब्रह्माण्ड मे अपने स्थान को जानने और पहचानने मे बहुत मदद की है। किसी समय समुद्री जहाजो के कप्तान और सागरी डाकू अपने साथ दूरबीन ले जाया करते थे जोकि उनकी देखने की क्षमता को चार गुणा बढ़ाते थे लेकिन दृश्यपटल काफ़ी संकरा हुआ करता था। लेकिन वर्तमान की आधुनिक दूरबीने बहुत सी दूरबीनो का एक विशालकाय समूह है जोकि अंतरिक्ष के हर कोने को देख सकती है। एक दूरबीन हमारी आंखो को विस्तार देती है और उन चिजो को भी देखने मे मदद करती है जिसे नंगी मानव आंखो से देखा नही जा सकता है।

तकनीकी रूप से एक दूरबीन एक ऐसा प्रकाशीय(optical) उपकरण है जो कि दूरस्थ वस्तुओं को लेंस तथा दर्पणो की सहायता से आवर्धित कर के दिखाता है। दूरबीन सामान्यत: प्रकाशीय दूरबीनों के लिये प्रयुक्त शब्द है लेकिन 17 वी सदी मे अपने अविष्कार के पश्चात यह उपकरण अनेक क्रांतिकारी परिवर्तनो के दौर से गुजरा है। जिसके फ़लस्वरूप वर्तमान दूरबीने ना केवल दृश्य प्रकाश मे काम करती है, बल्कि वे रेडीयो तरंग से लेकर गामा किरणो को भी देख सकती है। किसी दूरबीन का मुख्य कार्य दूरस्थ पिंड द्वारा उत्सर्जित प्रकाश या अन्य विकिरण को जमा करना और उस प्रकाश या विकिरण को एक जगह फ़ोकस करना है जिससे उसकी छवि को देखा जा सके, चित्र लिया जा सके या अध्ययन किया जा सके।

दूरबीनो का इतिहास

हैंस लिप्पर्शे (Hans Lippershey)

हैंस लिप्पर्शे (Hans Lippershey)

सबसे पहली दूरबीन हालैंड के एक चश्मो के निर्माता हैंस लिप्पर्शे(Hans Lippershey) ने बनाया थी और पेटेंट के लिये आवेदन किया था। लिप्पर्शे को पेटेट नही मिला लेकिन इस नई खोज की खबर सारे यूरोप मे जंगल की आग की तरह फ़ैल गई थी। लिप्पर्शे के डीजाईन मे एक उत्तल (convex) वस्तु लेंस और अवतल दृष्टि लेंस(concave eyepiece) था। हैंस का यह उपकरण किसी भी वस्तु को वास्तविक आकार से तीन गुना आवर्धित करने मे सक्षम था।

2009 मे जब हैंस लिप्पर्शे की दूरबीन की खबर गेलेलियो के पास पहुंची तो वे हैंस लिप्पर्शे के डीजाईन को देखे बगैर अपनी दूरबीन के निर्माण मे जुट गये। उन्होने अपनी दूरबीन मे बहुत से महत्वपूर्ण सुधार किये और उनकी दूरबीन मे उन्होने 20 गुणा आवर्धन प्राप्त करने मे सफ़लता पाई। इससे बड़ी बात यह थी कि गैलेलीयों दूरबीन का रूख आकाश की ओर करनेवाले प्रथम व्यक्ति थे जिसके फ़लस्वरूप उन्होने 1610 मे बृहस्पति के चार बड़े चंद्रमाओं को खोजने मे सफ़लता पाई। इन चार बड़े चंद्रमाओं को संयुक्त रूप से गैलेलीयन चंद्रमा कहा जाता है।

गैलेलीयो द्वारा निरीक्षण के बाद बनाया गया गैलेलीयन चंद्रमाओ का चित्र

गैलेलीयो द्वारा निरीक्षण के बाद बनाया गया गैलेलीयन चंद्रमाओ का चित्र

दूरबीनों के प्रकार

दूरबीनों के कई प्रकार है। दूरबीनो का वर्गीकरण लेंस और दर्पण की व्यवस्था के अनुसार, संवेदी विकिर्ण के अनुसार तथा वातावरण को झेल सकने की क्षमता जैसे कई तरिको से किया जाता है। लेकिन मुख्य रूप से दूरबीनो के तीन मुख्य प्रकार है, इन्ही तीन प्रकारो से सभी आधुनिक संस्करण बने है। ये तीन प्रकार निम्नलिखित है :

अपवर्तक (Refractor) दूरबीन – सबसे पहली निर्मित दूरबीन अपवर्तक दूरबीन थी। अपवर्तक दूरबीन मे एक लेंस के प्रयोग से प्रकाश को ग्रहण और फ़ोकस किया जाता है। इसमे कांच का लेंस दूरबीन के सामने होता है, जब प्रकाश इस लेंस से गुजरता है तब वह अपवर्तन से मुड़ता है। शुरुवाती खगोलशास्त्री इस तरह की दूरबीन का प्रयोग करते है क्योंकि इसका प्रयोग करना आसान है और रखरखाव मे अधिक मेहनत नही है।

 अपवर्तक (Refractor) दूरबीन


अपवर्तक (Refractor) दूरबीन

परावर्ती (Reflector) दूरबीन– परावर्ती दूरबीन मे एक दर्पण से प्रकाश को जमा कर फ़ोकस किया जाता है। सभी खगोलीय पिंड पृथ्वी से इतनी दूर है कि उनसे आने वाली सभी प्रकाश किरणे एक दूसरे के समानांतर होती है। इन समानांतर प्रकाशकिरणो को केंद्रीत करने के लिये पैराबोला के आकार का दर्पण बनाया जाता है। पैराबोला के आकार का दर्पण इन समानांतर प्रकाश किरणो को एक बिंदु पर केंद्रित करता है। सभी आधुनिक शोध दूरबीने और विशाल शौकिया दूरबीने इसी प्रकार की होती है क्योंकि अपने गुणो मे वे अपवर्तक से बेहतर होती है।

परावर्ती (Reflector) दूरबीन-

परावर्ती (Reflector) दूरबीन-

संयुक्त/केटेडीओप्ट्रीक(Compound/Catadioptric) दूरबीन – ये दूरबीन अपवर्ती और परावर्ती दूरबीन का मिश्रण होती है, ये दोनो दूरबीनो के लाभ लेती है।

संयुक्त/केटेडीओप्ट्रीक(Compound/Catadioptric) दूरबीन

संयुक्त/केटेडीओप्ट्रीक(Compound/Catadioptric) दूरबीन

दूरबीनो से संबधित मूलभूत शब्द

वस्तु लेंस(Objective Lens) – दूरबीन के सामने वाला लेंस वस्तु लेंस या प्राथमिक लेंस कहलाता है। यह दूरस्थ पिंड से प्रकाश जमा कर एक बिंदु पर फ़ोकस करता है।

अपर्चर (Aperture) – प्राथमिक दर्पण या लेंस का व्यास अपर्चर कहलाता है। अपर्चर जितना अधिक होगा छवि उतनी चमकदार होगी। एक अच्छे घरेलु दूरबीन का अपर्चन कम से कम 80 mm से 300 mm होना चाहीये। जबकी अरबो डालर के खर्च से बनी विशालकाय शोध दूरबीनो के अपर्चर 10 मिटर तक होते है।

फ़ोकस दूरी(Focal length) – जब प्रकाश किसी दर्पण या लेंस से गुजरता है तो उसे एक समतल सतह पर कुछ दूरी पर एक बिंदु पर केंद्रित किया जाता है। लेंस या दर्पण के केंद्र से इस बिंदु की दूरी को फ़ोकस दूरी कहा जाता है।

दृष्टि लेंस(Eyepiece) –दृष्टि लेंस एक छोटी ट्युब मे लेंस होते है जिससे दूरबीन के द्वारा फ़ोकस की गई छवि को आंखो से देखने मे सहायता करते है। आमतौर पर सभी दूरबीने दो क्षमता वाले लेसो के साथ आती है, कम आवर्धन और स्पष्ट छवि, तथा अधिक आवर्धन लेकिन धुंधली छवि वाले लेंस।

आवर्धन क्षमता(Magnifying Power) – यह दर्शाता है कि दूरबीन पिंड के दृश्य आकार को कितने गुणा अधिक विशाल कर दिखायेगी। इसकी गणना दूरबीन की फ़ोकस दूरी को दृष्टि लेंस की फ़ोकस दूरी से विभाजित कर की जाती है। इसलिये अधिक फ़ोकल दूरी वाले दृष्टि लेंस से आवर्धन कम होगा लेकिन छवि अधिक स्पष्ट और चमकदार होगी।

लेखिका का संदेश

आशा है कि इस लेख से आपको दूरबीनो के बारे मे जानने मे मदद मिली होगी। यदि आपको खगोल शास्त्र मे रुचि है तो आपको किसी दूरबीन से कम से कम एक बार आकाशीय पिंडॊ को देखना चाहीये। यह एक स्वप्निल अनुभव होगा और वह आपकी रुचि इस विषय मे अप्रत्याशित रूप से बढ़ायेगा।

इस शृंखला मे इससे पहले : विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

मूल लेख : AN INTRODUCTION TO THE BASIC CONCEPTS OF TELESCOPES

लेखक परिचय

सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका भौतिकी मे परास्नातक कर रही है। उनकी रुचि ब्रह्मांड विज्ञान, कंडेस्ड मैटर भौतिकी तथा क्वांटम मेकेनिक्स मे है।

Editor at The Secrets of the Universe, She is a science student pursuing Master’s in Physics from India. Her interests include Cosmology, Condensed Matter Physics and Quantum Mechanics



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Friday 19 April 2019

विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

कितना अद्भुत है कि हम खूबसूरत तारों , ग्रहों, चंद्रमा और सूर्य से लाखों करोड़ो किलोमीटर दूर रहते हुये भी उनके विषय मे बहुत कुछ जानते और समझते है। यह लेख मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला का द्वितीय लेख है। इस लेख मे हम खगोलभौतिकी के अध्ययन के सबसे महत्वपूर्ण उपकरण के बारे मे बुनियादी जानकारी देगें। इस उपकरण का नाम है विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic spectrum)। अब हम जानने का प्रयास करते है कि विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic spectrum) क्या है और इसका खगोल भौतिकी मे क्या महत्व है?

विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(The Electromagnetic (EM) spectrum)

बचपन से ही हमे विद्युत चुंबकीय वर्ण क्रम के सिद्धांत का परिचय दे दिया जाता है। इसे हमने सीधे इंद्रधनुष के रूप मे देखा होता है या इसे अपने प्राथमिक स्कूल मे पढ़ा होता है। लेकिन इंद्रधनुष विशाल विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम का एक नन्हा सा दृश्य हिस्सा है। अब हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम को संपूर्ण रूप से देखते है।

दृश्य प्रकाश के रंग और विद्युत चुंबकिय विकिरण

दृश्य प्रकाश के रंग और विद्युत चुंबकिय विकिरण

विद्युत चुंबकीय विकिरण (Electromagnetic Radiation)

विकिरण या रेडीएशन ऊर्जा का एक प्रकार है तरंग और कणो के रूप मे यात्रा करता है और अपनी इस यात्रा मे विस्तृत(फ़ैलते) होते जाता है। विद्युत चुंबकीय विकिरण को शून्य द्रव्यमान वाले कण फोटान की धारा के रूप मे परिभाषित किया जा सकता है। हर फोटान एक विशिष्ट मात्रा मे ऊर्जा रखता है और वह एक तरंग के रूप मे प्रकाशगति से यात्रा करता है।

सूर्य, तारो या घर मे लगी ट्युबलाईट/बल्ब से हमारे घर तक आने वाला प्रकाश दृश्य विद्युत चुंबकीय विकिरण का उदाहरण है। किसी रेडीयो स्टेशन से निकलने वाली रेडीयो तरंगे जो संचार का एक सशक्त माध्यम है विद्युत चुंबकीय विकिरण है। खाना बनाने या उसे गरम करने मे प्रयुक्त माइक्रोवेव तरंग भी विद्युत चुंबकीय विकिरण है। पराबैंगनी तरंग(Ultraviolet waves) जिनसे त्वचा कैंसर हो सकता है भी विद्युत चुंबकीय विकिरण है। हमारे रोजमर्रा के जीवन मे विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के कई भाग जैसे अवरक्त किरणे(infrared), एक्सरे, गामा किरण का प्रयोग होता है। जब हम ठंड लगती है और हम सूर्य से उष्णता प्राप्त करने का प्रयास करते है तब है सौर विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम के अवरक्त भाग से उष्णता प्राप्त कर रहे होते है। जब हमारी हड्डीयों मे कोई चोट लगती है तो उसकी जांच और स्थिति की जानकारी के लिये हम एक्सरे का प्रयोग करते है।

विद्युत चुंबकीय विकिरण (आकार और तापमान की तुलना)

विद्युत चुंबकीय विकिरण (आकार और तापमान की तुलना)

हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के विभिन्न भागो का वर्गीकरण कैसे करते है ?

विभिन्न प्रकार के विकिरण की परिभाषा उनके वाहक फोटान की ऊर्जा के के अनुसार दी जाती है। रेडीयो तरंग के फोटान की ऊर्जा कम होती है, माइक्रोवेव के फोटानो की ऊर्जा रेडीयो तरंग के फोटानो से अधिक होती है, अवरक्त तरंगो के फोटान की और अधिक। इस ऊर्जा के बढ़ते अनुक्रम मे दृश्य प्रकास, पराबैंगनी, एक्स रे और सबसे शक्तिशाली गामा किरणे आती है।

विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम का खगोलभौतिकी मे महत्व

भिन्न तरंगदैधर्य वाले क्षेत्रो के विकिरण खगोलभौतिकी के पिंडो मे होने वाली भिन्न भिन्न भौतिकीय प्रतिक्रियाओं का परिणाम होते है। हम ब्रह्मांड के दूरी वाले क्षेत्रो का अध्ययन इन विद्युत चुंबकीय विकिरणो की जांच और विश्लेषण से कर सकते हैं।

किसी तारे द्वारा उत्सर्जित विद्युत चुंबकीय विकिरण विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के एक बड़े भाग मे कई क्षेत्रो मे फ़ैला होता है। इस क्षेत्रो के विश्लेषण और अध्ययन से हम उस तारे की संरचना, आकार और अन्य गुणधर्मो को जान सकते है।

कुछ सरल तत्वो का वर्णक्रम

खगोलभौतिकी वैज्ञानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी(spectroscopy) उपकरण के प्रयोग से तारे और ग्रह की रासायनिक संरचना का पता लगाते है, इस अध्ययन मे उस तारे द्वारा उत्सर्जित विद्युत चुंबकीय विकिरण के तरंगदैधर्य को देखा जाता है। हमने पिछले लेख मे देखा है कि वोल्लास्टन और फ़्राउनहोफ़र द्वारा सौर वर्णक्रम मे पाई जाने वाली गहरी रेखाओं ने खगोलभौतिकी को जन्म दिया था।

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला तथा वायेजर अंतरिक्ष अण्वेषण यान अंतरिक्ष मे शोध करते है और इन उपकरणो द्वारा दूरस्थ खगोलिय पिंडो के अध्ययन मे पृथ्वी द्वारा उत्पन्न विद्युत चुंबकीय विकिरण आड़े नही आता है। इन उपकरण हमारी आकाशगंगा और ब्रह्माण्ड के दूरस्थ भागो से आते विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के अध्ययन मे अत्याधिक संवेदी और सटीक निरीक्षण परिणाम प्राप्त होता है।

किसी खगोलवैज्ञानिक के हाथो मे ब्रह्मांड के रहस्यो को अनावृत्त करने के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। वर्णक्रम के अध्ययन से अत्याधिक मात्रा मे सूचना प्राप्त होती है। उदाहरण के लिये खगोलीय वर्णक्रम से हम उसकी रासायनिक संरचना, तापमान, द्रव्यमान , आकार, दूरी और घनत्व को जान सकते है। इसके साथ ही हम उस तारे की हमसे सापेक्ष गति की भी गणना कर सकते है। रेडीयो खगोलशास्त्र(Radio Astronomy) इस विषय की एक मुख्य शाखा और लोकप्रिय शाखा है। रेडीयो वर्णक्रम(Radio Spectrum) के अध्ययन से वैज्ञानिक अत्यधिक दूरी पर स्थित पिंडों जैसे ब्लैक होल, क्वासर और आकाशगंगाओ का अध्ययन करते है।

लेखिका का संदेश

मै प्लाज्मा भौतिक शास्त्री हुं और मै अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा की विभिन्न तरंगो जैसे अल्फ़वेन(alfven) तरंग का अध्ययन करती हुं। अल्फ़वेन तरंग को सौर कोरोना के अनियमित रूप से उष्ण होने के लिये उत्तरदायी माना जाता है। उपग्रहों और अंतरिक्ष यान द्वारा प्लाज्मा तरंगे का निरीक्षण होता रहता है जोकि अंतरिक्ष और खगोल भौतिकीय पिंडो द्वारा मूलभूत प्लाज्मा गतिविधियों के अध्ययन के लिये अत्यधिक रूचिकर है। आशा है कि इस लेख से आपको खगोल भौतिकी मे प्रयुक्त होने वाले इस सरल से लेकिन अत्यधिक महत्वपूर्ण उपकरण को समझने मे मदद मिली होगी।

इस शृंखला मे इससे पहले : खगोल भौतिकी(ASTROPHYSICS) क्या है और वह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से कैसे भिन्न है?

मूल लेख : WHAT IS EM SPECTRUM & WHY IT’S THE MOST IMPORTANT TOOL IN ASTROPHYSICS?

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2VbjJkY
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Tuesday 16 April 2019

खगोल भौतिकी(ASTROPHYSICS) क्या है और वह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से कैसे भिन्न है?

लेखक : ऋषभ

यह लेख ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)” शृंखला के 30 लेखो मे से पहला है, इस शृंखला मे खगोलभौतिकी संबधित विविध विषय जैसे विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम से लेकर आकाशगंगा, सूर्य से लेकर न्युट्रान तारे तथा ब्लैकहोल और क्वासार से लेकर नेबुला और कास्मिक बैकग्राउंड विकिरण(CMB) का समावेश होगा। इन सब ब्रह्मांडीय संरचनाओं की चर्चा से पहले हम जानने का प्रयास का करते है कि खगोल भौतिकी क्या है और वह खगोलशास्त्र(Astronomy) तथा ब्रह्मांड विज्ञान(Cosmology) से किस तरह भिन्न है?

खगोलभौतिकी की परिभाषा

खगोलभौतिकी (Astrophysics) खगोल विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत भौतिकी और रसायनशास्त्रो के नियमों के द्वारा खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है जिसमे उनकी स्थिति तथा अंतरिक्ष मे गति का समावेश नही है।

खगोलभौतिकी मे तारों का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है।

खगोलभौतिकी मे तारों का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है।

खगोलभौतिकी मे तारों के अध्ययन का विशेष महत्व है। खगोलभौतिकी वैज्ञानिक भौतिकी ने नियमों का प्रयोग कर सूर्य, तारे और उनके विकास, आकाशगंगा, अंतरतारकीय(intersteller) माध्यम तथा कास्मिक बैकग्राउंड विकिरण का अध्ययन करते है। ब्रह्मांड के इस अध्ययन मे रहस्यों को खोलने का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम है। इसलिये खगोलभौतिकी वैज्ञानिक इन सभी खगोलिय पिंडों के वर्णक्रम का अध्ययन कर उनमे चल रही विभिन्न गतिविधियों को समझते है। श्याम ऊर्जा(Dark Energy),श्याम पदार्थ(Dark Matter), समय यात्रा(Time Travel), वर्महोल तथा श्याम वीवर (Black Hole) जैसे विषय खगोलभौतिकी के अंतर्गत आते है।

खगोलभौतिकी की समय रेखा

अब हम खगोलभौतिकी के विकास यात्रा मे आये पांच मुख्य पड़ाव की चर्चा करेंगे। इन पांच घटनाओं ने खगोलभौतिकी को एक विज्ञान की अन्य शाखाओं मध्य अपनी अलग पहचान बनाने मे सहयोग दिया है।

1. वोलास्टन (1802 मे) और फ़्राउनहोफ़र(1814 मे) द्वारा सौर वर्णक्रम मे गहरी रेखाओं का निरीक्षण(Dark Lines In Solar Spectrum by Wollaston And Fraunhofer)

खगोलभौतिकी का आरंभ सूर्य के वर्णक्रम मे सर विलियम वोल्लास्टन और जोसेफ़ फ़्राउनहोफ़र द्वारा गहरी रेखाओं के अध्ययन से आरंभ हुआ था, इन रेखाओं को अब फ़्राउनहोफ़र रेखा (Fraunhofer Lines) कहा जाता है।

फ़्राउनहोफ़र रेखा (Fraunhofer Lines)

फ़्राउनहोफ़र रेखा (Fraunhofer Lines)

जब सूर्यप्रकाश किसी प्रिज्म से गुजरता है तो वह इंद्रधनुष के रंगो मे विभाजित हो जाता है। इन रंगो को सूर्य का वर्णक्रम कहा जाता है। लेकिन जब इस वर्णक्रम को गहराई से देखा जाये तो इसमे बहुत सी गहरी रेखायें होती है। यह अवशोषण रेखाये सूर्य मे बहुत सी अशुद्धीयों जैसे कैल्सीयम, सोडेयम, मैग्निशियम , लोहा इत्यादि की उपस्तिथि से उत्पन्न होती है। सूर्य मे सबसे अधिक मात्रा मे हायड्रोजन उपस्थित है लेकिन उसमे अत्यल्प मात्रा मे अशुद्धियो की उपस्थिति विशिष्ट तरंगदैधर्य के प्रकाश को अवशोषित कर लेती है जिससे ये गहरी रेखायें बनती है। इस विषय पर हम आने वाले ले्खों मे चर्चा करेंगे।

2. पिकरींग एट अल द्वारा 1885 मे तारों का 7 वर्गो मे वर्गीकरण( Classification of Stars Into 7 Types by Pickering et al)

हावर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification Scheme)

हावर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification Scheme)

पिकरींग और उनकी टीम मे एन्नी कैनन जंप(Annie Cannon Jump) और एंटोनिया मौरी(Antonia Maury) जैसे महिला वैज्ञानिको का समावेश था। इस टीम मे वर्णक्रम के आधार पर 400,000 तारों को सात वर्गो मे विभाजित किया।इस वर्गीकरण प्रणाली को हावर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification Scheme) कहते है, इस प्रणाली ने खगोलभौतिकी को एक दिशा दी और इस प्रणाली का प्रयोग आज भी होता है। इस वर्गीकरण ने स्पेक्ट्रोग्राफ़ी(वर्णक्रम के अध्ययन) का महत्व को खगोलभौतिकी मे रेखांकित किया।

3. एडींगटन का शोधपत्र: तारों की आंतरिक संरचना -1920( Eddington’s Paper: The Internal Constitution Of Stars)

1920 के आसपास किसी भी खगोलीय पिंड की ऊर्जा का स्रोत एक रहस्य ही था। आर्थर एडींगटन ने आईंस्टाईन के द्रव्यमान-ऊर्जा के प्रसिद्ध समीकरण की सहायता से सिद्ध किया कि तारों मे ऊर्जा का उत्पादन उनके केंद्र मे हायड्रोजन के संलयन से हिलियम निर्माण से होता है। उन्होने इस निष्कर्ष को तारों की आंतरिक संरचना शीर्षक वाले शोधपत्र मे प्रकाशित किया था।

4. सेसीलिआ पेन का डाक्टरल शोधपत्र -1925( Doctoral Thesis of Cecilia Payne)

सेसीलिआ पेन के सहकर्मीयों के अनुसार यह सबसे विलक्षण डाक्टरल शोधपत्र था जिसमे यह बताया गया था कि तारों के मुख्य घटक हायड्रोजन(H) और हिलियम(He) है।

5. गुरुत्वाकर्षण तरंगो की खोज – 2016 (Detection of Gravitational Waves)

दो श्याम वीवरों द्वारा एक दूसरे की परिक्रमा से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण तरंगे

दो श्याम वीवरों द्वारा एक दूसरे की परिक्रमा से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण तरंगे

गुरुत्वाकर्षण तरंगो की खोज से खगोलभौतिकी के क्षेत्र मे एक नया युग आया, यह खगोल भौतिकी मे एक मील का पत्थर है। गुरुत्वाकर्षण तरंगे किसी दो अत्यधिक संपिडीत पिंड जैसे ब्लैक होल के टकराने और विलय से उत्पन्न होती है। इनका निरीक्षण और जांच अत्यधिक दुरुह कार्य है।

खगोलभौतिकी किस तरह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से भिन्न है?

अब हम जानते है कि खगोलभौतिकी क्या है, अब देखते है कि वह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से कैसे भिन्न है?

खगोलविज्ञान विज्ञान की वह शाखा है जिसमे आकाशीय पिंडो की गति तथा स्तिथि का अध्ययन किया जाता है। खगोल शास्त्र, एक ऐसा शास्त्र है जिसके अंतर्गत पृथ्वी और उसके वायुमण्डल के बाहर  अर्थात अंतरिक्शःअ होने वाली घटनाओं का अवलोकन, विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या (explanation) की जाती है। यह वह अनुशासन है जो आकाश में अवलोकित की जा सकने वाली तथा उनका समावेश करने वाली क्रियाओं के आरंभ, बदलाव और भौतिक तथा रासायनिक गुणों का अध्ययन करता है। इसमे ग्रहों की स्तिथियों की गणना, ग्रहण के समय की गणना, उल्कापात के पूर्वानुमान का समावेश होता है। खगोलशास्त्र मुख्य रूप मे खगोलीय गतिकी और ओप्टिक्स के प्रयोग से खगोलीय पिंडो की स्तिथि और संरचना का अध्ययन करता है।

ब्रह्माण्ड विज्ञान या कॉस्मोलॉजी खगोल विज्ञान की एक शाखा है, जिसमें ब्रह्माण्ड से जुड़ी तमाम बातों का अध्ययन किया जाता है। इसमें ब्रह्माण्ड के बनने की प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी दी जाती है। ब्रह्माण्ड विज्ञान(Cosmology) मुख्य रूप से ब्रह्माण्ड के जन्म , विकास और अंत का अध्ययन करता है।

ब्रह्माण्ड विज्ञान मे ब्रह्मांड का बड़े पैमाने पर अध्ययन होता है, इसमे ब्रह्मांड का सम्पूर्ण रूप से अध्ययन होता है जबकि खगोलशास्त्र मे किसी विशिष्ट खगोलिय पिंड का अध्ययन होता है।

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

मूल लेख : https://secretsofuniverse.in/2019/04/15/what-is-astrophysics-and-hows-it-different-from-astronomy-cosmology/



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