In this blog you will enjoy with science

Thursday 30 May 2019

खगोल भौतिकी 20 : तीन तरह के ब्लैक होल

लेखक : ऋषभ ब्लैक होल का वर्गीकरण पिछले कुछ लेखों मे तारकीय खगोलभौतिकी पर विस्तार से चर्चा के पश्चात हम लोकप्रिय विज्ञान से सबसे पसंदीदा विषय की ओर नजर डालते है : ब्लैक होल। इसके पहले के लेख मे हमने देखा था कि किस तरह ब्लैक होल बनते है, यह ब्लैक होल तारकीय द्रव्यमान वाले…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2wqzxT0
Share:

Wednesday 29 May 2019

फिलीपींस में मिली आदि मानव की नई प्रजाति

हम आधुनिक मानव (होमो सेपियंस) पिछले दस हजार सालों से एकमात्र मानव प्रजाति होने के इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि किसी दूसरी मानव प्रजाति के बारे में कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभ में मानव वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने हमारी इस सोच को बदलते हुए बताया कि…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2MhlDNH
Share:

इंसानी करतूतों से जैव प्रजातियों पर मंडराता लुप्त होने का खतरा

हमारा जैव मंडल एक विशाल इमारत की तरह है। हम इंसान इस इमारत के सबसे ऊपरी मंजिल पर बैठे हैं। अगर हम इस इमारत में से जीवों की कुछ प्रजातियों को मिटा भी देते हैं, तो इमारत से सिर्फ कुछ र्इंटें ही गायब होंगी, इमारत तो फिर भी खड़ी रहेगी। परंतु यदि लाखों-लाख की संख्या…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2KbUGbw
Share:

देश की स्वास्थ्य रक्षा के लिए जरूरी है जीनोम मैपिंग

हाल ही में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा एक परियोजना के तहत भारत के एक हजार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग (अनुक्रमण) किए जाने की योजना तैयार की गई है। दरअसल यह सरकारी नेतृत्व में जीनोम सिक्वेंसिंग के लिए चलाई जा रही एक बड़ी परियोजना का एक हिस्सा होगी, जिसके अंतर्गत लगभग…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2JK1sWI
Share:

Tuesday 28 May 2019

खगोल भौतिकी 19 :न्यूट्रान तारे और उनका जन्म

लेखक : ऋषभ ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के पिछले लेख मे हमने सूर्य के जैसे मध्यम आकार के तारों के विकास और जीवन की चर्चा की। हमने देखा कि वे कैसे श्वेत वामन(white dwarfs) तारे बनते है। इस शृंखला के उन्नीसवें लेख मे हम महाकाय तारो के जीवन और विकास की चर्चा करेंगे…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2VTCPs1
Share:

Sunday 26 May 2019

खगोल भौतिकी 18 :श्वेत वामन(WHITE DWARFS) क्या होते है और वे कैसे बनते है ?

लेखक : ऋषभ इस शृंखला के पिछले सत्रह लेखों मे हमने जो जानकारी प्राप्त की है, अब उस जानकारी के अनुप्रयोग का समय है। हमने एक के बाद खगोलभौतिकी के विभिन्न सिद्धांतो को समझा है। अब हम उन सिद्धांतो के प्रयोग से खगोल भौतिकी की सबसे रोचक शाखा ‘तारकीय विकास(Stellar Evolution)’ को समझेंगे। ब्रह्माण्ड मे…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2K4Mr0V
Share:

Friday 24 May 2019

खगोल भौतिकी 17 : तारों मे चल रही नाभिकिय प्रक्रियायें(NUCLEAR REACTIONS IN STARS)

लेखक : ऋषभ तारों के जीवन और विकास के अध्ययन पर आगे बढ़ने से पहले से पहले उनपर चलरही नाभिकिय अभिक्रियाओं को जानना महत्वपूर्ण है। तारकीय खगोलभौतिकी के अध्ययन मे भौतिकी के अन्य विषय जैसे नाभिकिय भौतिकी(nuclear physics), उष्मागतिकी(thermodynamics), कण भौतिकी(particle physics), विद्युतगतिकी(electrodynamics), सांख्यकिय यांत्रिकी(statistical mechanics) तथा गुरुत्विय भौतिकी(gravitational physics) की भी भूमिका होती है।…

from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2X5QCx0
Share:

Tuesday 21 May 2019

कैसे एक मॉडल बनें EINSTIEN ACADEMY

बहुत सारे लोग मॉडल बनना चाहते हैं क्योंकि यह ग्लैमरस और आकर्षक है। हो सकता है वे मॉडलिंग की दुनिया में मान्यता प्राप्त करना चाहते हों। मॉडलिंग अत्यंत प्रतिस्पर्धी है, और इंडस्ट्री रिजेक्शन्स से भरी हुई है, लेकिन एक सक्सेसफुल मॉडल वो है, जो अपना ज्यादातर समय वह करने में बिताते हैं, जो उन्हें पसंद है। यह जानना कि मॉडलिंग की दुनिया में प्रवेश करने पर आपसे क्या आशा रखी जाती है एक मॉडल बनने में आपकी मदद कर सकता हैं।



इसे फॉलो करो और आप को ये गाइड देगा   अगर  आप के मन में ये सवाल आया है की ये कैसे मदद करेगा तो इसने ये पे है इसने मेहनत  की और दिखा दिया उन्हें जिनको इस्पे भरोसा नहीं था इसका नाम आसुतोष है और आज ये दूसरेलोगो की मदद कर रहा है इसे इंस्टाग्राम  पर फॉलो करके मेसेज कीजिये और  करेगा ये लड़का लड़की के धोका खाने के बाद जिन्दगी बदल दिया और आप भी तैयार हो जाईये  बदल के रख देगा 




Share:

Monday 20 May 2019

खगोल भौतिकी 15 : सौर न्यूट्रिनो समस्या(THE SOLAR NEUTRINO PROBLEM)

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

इसके पहले के दो लेखो मे हमने सूर्य की संरचना को विस्तार से देखा है। सौर भौतिकी से आगे बढ़ने से पहले हम खगोलभौतिकी की एक रोचक समस्या के बारे मे चर्चा करेंगे, जिसे हम सौर न्यूट्रिनो समस्या(THE SOLAR NEUTRINO PROBLEM) के नाम से जानते है। 2015 मे इस समस्या को हल करने के लिये प्रोफ़ेसर आर्थर बी मैकडोनाल्ड(Prof. Arthur B. McDonald) और प्रोफ़ेसर तकाकी काजीता(Prof. Taakaki Kajita) को नोबेल पुरस्कार मिला था। इस लेख को इस शृंखला मे शामिल करने का उद्देश्य यह दर्शाना है कि किस तरह से ’कण भौतिकी(particle physics)’ खगोल भौतिकी मे महत्वपूर्ण है। । ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के पंद्रहवें लेख मे हम न्यूट्रिनो की चर्चा करेंगे और देखेंगे कि वे किस तरह सूर्य से संबधित है। सबसे पहले देखते है कि सौर न्यूट्रिनो समस्या(THE SOLAR NEUTRINO PROBLEM) क्या है और उसका हल क्या है?

इस शृंखला के सारे लेखों को पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

न्यूट्रिनो क्या है ?

न्यूट्रिनो पदार्थ के मूलभूत कणो मे से एक है। इन कणो मे कोई आवेश नही होता है। पहले यह माना जाता था कि इनका द्रव्यमान भी नही होता है लेकिन इनका अत्यल्प किंतु द्रव्यमान होता है। न्यूट्रिनो पदार्थ के साथ बहुत कमजोर प्रतिक्रिया करते है जिससे उनकी जांच बहुत कठिन होती है। इन कणो की पदार्थ से प्रतिक्रिया इतनी कमजोर है कि जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे तब आपके शरीर के आर पार खरबो न्यूट्रिनो जा चुके होंगे और आपको पता भी नही चला होगा। न्यूट्रिनो के तीन प्रकार है, इलेक्ट्रान-न्यूट्रिनो(Electron neutrino), म्युआन-न्यूट्रिनो(Muon neutrino) तथा टाउ-न्यूट्रिनो(Tau neutrino)। इन प्रकारों को न्यूट्रिनो के फ़्लेवर(flavors) कहते है।

यह भी पढ़े : ब्रह्मांड किससे निर्मित है?

न्यूट्रिनो के तीन फ़्लेवर

न्यूट्रिनो के तीन फ़्लेवर

सूर्य मे उत्पन्न न्यूट्रिनो

सूर्य मे मुख्यत: हायड्रोजन गैस है। मानक सौर माड्ल के अनुसार सूर्य के केंद्रक का तापमान 150 लाख केल्विन है। इस तापमान पर मुख्य अभिक्रियाये प्रोटान-प्रोटान शृंखला अभिक्रियायें(proton-proton chain reactions) होती है। नीचे दिया गया चित्र इन अभीक्रियाओं को दर्शा रहा है।

प्रोटान-प्रोटान शृंखला अभिक्रिया(proton-proton chain reaction)

प्रोटान-प्रोटान शृंखला अभिक्रिया(proton-proton chain reaction)

आप आसानी से इस चित्र मे अभिक्रिया के द्वितिय चरण को देख सकते है जिसमे दो लाल रंग मे दर्शाये कण बने है जोकि न्यूट्रिनो है। सूर्य केवल इलेक्ट्रान न्यूट्रिनो बनाता है। यह माना जाता है कि सूर्य मे प्रतिसेकंड 1.8*1038 (180 ट्रिलियन ट्रिलियन ट्रिलियन) न्यूट्रिनो बनते है। जिसमे 400 ट्रिलियन न्यूट्रिनो हर सेकंड पृथ्वी पर से हमारे शरीर को पार करते है। इन न्यूट्रिनो की ऊर्जा इतनी कम होती है कि इन्हे पकड़ा या जांचा नही जा सकता है। तो इन्हे हम कैसे देखते या जांचते है ?

अधिक ऊर्जा वाले न्यूट्रिनो दुर्लभ है। उनके पाये जाने की आवृत्ति 10,000 p-p अभिक्रिया मे 2 है। इन दो कणो को जांचने के लिये हमे एक विशालकाय द्रव से भरा पात्र चाहिये। इन विशाल पात्रो मे न्यूट्रिनो को सेरेन्कोव डीटेक्टर(Cerenkov detectors) से देखा/जांचा जा सकता है। यह उपकरण केवल इलेक्ट्रान-न्यूट्रिनो के लिये संवेदी है, लेकिन यह डिटेक्टर सूर्य मे बनने वाले केवल आधे न्यूट्रिनो को ही देख/जांच पाता है। बाकी के आधे न्यूट्रिनो कहाँ गये ?

इस प्रश्न ने भौतिक वैज्ञानिको को अचरज मे डाल रखा था। कण भौतिक वैज्ञानिक इसके लिये ‘सौर माडल’ पर ही प्रश्न उठा रहे थे, उनके अनुसार सौर माडल पूरा नही है, इसमे कुछ और भी होना चाहिये। शायद सौर भौतिकी वैज्ञानिको द्वारा प्रस्तावित सैद्धांतिक कुल न्यूट्रिनो के उत्पादन की दर ही गलत है। लेकिन सौर भौतिक वैज्ञानिक अड़े हुये थे कि यह माडल सही है और इसके द्वारा सूर्य की गतिविधियों के हर पहलु की व्याख्या सफ़ल रूप से होती है।

अनुपस्थित सौर न्यूट्रिनो समस्या का हल(Solving The Missing Solar Neutrino Problem)

इस समस्या को हल करने मे दो न्यूट्रिनो डिटेक्टर ने प्रमुख भूमिका निभाई थी, इसमे से एक कनाडा का सडब्युरी न्यूट्रिनो ओब्जर्वेटरी (Sudbury Neutrino Observatory (SNO))तथा दूसरा जापान का सुपर-कामीओकांडे डीटेक्टर(Super-Kamiokande detector) था। SNO मे सूर्य, पृथ्वी और सुपरनोवा से निकलने वाले न्यूट्रिनो का अन्वेषण होता है।

जापान का सुपर-कामीओकांडे डीटेक्टर(The Super-Kamiokande detector in Japan)

जापान का सुपर-कामीओकांडे डीटेक्टर(The Super-Kamiokande detector in Japan)

सेरेन्कोव विकिरण (Cherenkov radiation, चेरेन्कोव विकिरण अथवा वाविलोव-सेरेन्कोव विकिरण) एक विद्युतचुम्बकीय विकिरण है जो तब उत्पन्न होता है जब कोई आवेशित कण (मुख्यतः इलेक्ट्रॉन) किसी पैराविद्युत-माध्यम में उस माध्यम में प्रकाश के फेज वेग से अधिक वेग से गति करे। जल के भीतर स्थित नाभिकीय रिएक्टर से निकलने वाला विशिष्ट नील चमक, सेरेन्कोव विकिरण के ही कारण होती है। इसका नाम सोवियत संघ के वैज्ञानिक तथा 1958 के नोबेल पुरस्कार विजेता पावेल अलेकसेविच सेरेनकोव (Pavel Alekseyevich Cherenkov) के नाम पर रखा गया है जिन्होने इसे सबसे पहले प्रायोगिक रूप से खोजा (डिटेक्ट किया) था। इस प्रभाव का सैद्धान्तिक विवेचन बाद में विकसित हुआ जो आइन्सटाइन के विशिष्ट सापेक्षतावाद के सिद्धान्त पर आधारित था। सेरेन्कोव विकिरण के अस्तित्व की सैद्धान्तिक प्रस्तावना ओलिवर हेविसाइड ने 1988-89में दी थी।

जब कोई आनेवाला न्यूट्रिनो जल मे इलेक्ट्रान या म्युआन का निर्माण करता है, यह इलेक्ट्रान अपनी गति से सेरेन्कोव विकिरण उत्पन्न करेगा, इस विकिरण की तीव्रता न्यूट्रिनो की ऊर्जा के अनुपात मे होती है। इस तथ्य के प्रयोग से वैज्ञानिक आनेवाले न्यूट्रिनो की ऊर्जा की गणना करते है।

न्यूट्रिनो दोलन(Neutrino Oscillations)

सुपर-कामीओकांडे डीटेक्टर पर कार्य करने वाले वैज्ञानिको ने न्यूट्रिनो के गुणधर्मो से संबधित एक क्रांतिकारी खोज की थी। उन्होने न्यूट्रिनो दोलन का प्रायोगिक निरीक्षण किया। न्यूट्रिनो दोलन उस समय होता है जब एक फ़्लेवर का न्यूट्रिनो दूसरे फ़्लेवर के न्यूट्रिनो मे परिवर्तित हो जाता है। न्यूट्रिनो का द्रव्यमान अत्यंत कम अर्थात 0.05-0.1 eV/c2 के मध्य होता है। इतने अत्यल्प द्रव्यमान के कारण न्यूट्रिनो द्रव्यमान से प्रतिक्रिया कर पाते है। एक विशिष्ट न्यूट्रिनो का जन्म इलेक्ट्रान-न्यूट्रिनो के रूप मे हो सकता है लेकिन वह म्युआन-न्यूट्रिनो या टाउ-न्यूट्रिनो मे बदल सकता है, इसके अतिरिक्त इसके विपरीत परिवर्तन भी संभव है।

न्यूट्रिनो दोलन(Neutrino Oscillations)

न्यूट्रिनो दोलन(Neutrino Oscillations)

सबड्युरी टीम ने अपने इलेक्ट्रान-न्यूट्रिनो प्रवाह(electron-neutrino flux) की तुलना सुपर-कामीओकांडे द्वारा सटिकता से मापे गये कुल न्यूट्रिनो (total neutrino flux)प्रवाह से की। इन दोनो मुल्यो की तुलना से SNO और सुपर-कामीओकांडे के भौतिक वैज्ञानिको ने वास्तविक सौर न्यूट्रिनो प्रवाह की गणना की। यह मूल्य स्टैंडर्ड सौर माडेल द्वारा सूर्य पर ऊर्जा उत्पादन के अनुरूप ही थी। इसका अर्थ यह था कि अनुपस्थित न्यूट्रिनो ने वास्तविकता मे अपना फ़्लेवर इलेक्ट्रान-न्यूट्रिनो से म्युआन-न्यूट्रिनो मे बदला था। इसी कारण से वे इन डिटेक्टरो से बच निकले थे।

मूल लेख: THE SOLAR NEUTRINO PROBLEM

लेखिका का संदेश

लेखिका छात्र और नोबेल पुरस्कार विजेताओं के मध्य होनेवाली 66वें लिंडाउ मिटींग(66th Lindau Meeting) मे तकाकी काजीता से मिल चुकी है। उनका व्याख्यान न्यूट्रिनो दोलन पर ही केंद्रित था। इस व्याख्यायान ने ही लेखिका की रूचि न्यूट्रिनो दोलन की रोचक गतिविधियों मे जगाई। लेखिका को प्रो टकाकी काजीता की शांत छवि और समर्पण ने प्रभावित किया। प्रोफ़ेसर से वार्ता के बाद लेखिका ने अहसास किया कि सुपर-कामिओकांडे डिटेक्टर कितना विशाल प्रोजेक्ट है। वैज्ञानिको की एक विशालकाय टीम सुपर-कामिओकांडे डीटेक्टर ने इस कार्य के लिये समर्पित है। लेखिका ने अपने डाक्टरल शोध कार्य मे प्लाज्मा भौतिकी मे अन्य गतिविधियों के साथ न्यूट्रिनो बीम मे न्यूट्रिनो दोलन से उत्पन्न अस्थिरता पर अध्ययन किया जोकि अत्याधिक सापेक्ष डीजनरेट प्लाज्मा जैसे लाल महादानव तारो (बीटलगुज) मे होती है।

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai) प्रोफ़ेसर टकाकी काजीता(Prof. Taakaki Kajita) के साथ

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai) प्रोफ़ेसर तकाकी काजीता(Prof. Taakaki Kajita) के साथ

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2WWON5w
Share:

Wednesday 15 May 2019

खगोल भौतिकी 14 :सूर्य की संरचना 2 – सौरकलंक, सौरज्वाला और सौरवायु

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

पिछले लेख मे हमने अपने सौर परिवार के सबसे बड़े सदस्य सूर्य की संरचना का परिचय प्राप्त किया था। । ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के चौदहवें लेख मे हम सूर्य की संरचना की अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे। इस लेख मे हम सूर्य की संरचना और उसकी सतह पर सतत चल रही कुछ अद्भूत गतिविधियों को जानेंगे।

इस शृंखला के सारे लेखों को पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

सौर कलंक/सूर्यधब्बे(Sunspots)

सूर्य के फोटोस्फियर मे चलने वाली गतिविधियों मे सबसे हटकर दिखाई देने वाली गतिविधि सौरकलंक है। सौरकलंक सूर्य के वह क्षेत्र है जहाँ चुंबकीय क्षेत्र अत्याधिक शक्तिशाली होता है और तापमान कम। किसी सौरकलंक का तापमान 3800 K हो सकता है जो कि आसपास के फोटोस्फियर तापमान से 2000 K कम है। यही कारण है कि सौर कलंक दीप्तीमान फोटोस्फियर पृष्ठभूमी मे गहरे धब्बो की तरह दिखाई देते है।

सौरकलक, सूर्य धब्बे(Sunspots)

सौरकलक, सूर्य धब्बे(Sunspots)

सौरकलंक का प्रथम निरीक्षण

1610 मे गैलेली गलीलीयो ने अपनी नई खोज दूरबीन से सौरकलंको को प्रथम बार देखा था। अठारवी सदी के अंत तथा उन्नीसवीं सदी के आरंभ खगोलवौज्ञानिक इन्हे सूराख(hole) समझते थे। वे मानते थे कि सौरकलंक ऐसी खिड़कीया है जिनके द्वारा सूर्य की आंतरिक संरचना को देखा जा सकता है। अब हम जानते है कि यह सब विचित्र कल्पना मात्र थी। लेकिन उस समय ऐसी कल्पनाओं पर विश्वास करना आसान था।

सौरकलंक आरंभ के लगभग 1,000 km व्यास के क्षेत्र से आरंभ होता है। उसका आकार और आकृति धीमे धीमे उसके विस्तार के साथ बदलती है। एक पूर्णत: व्यस्क सौर कलंक के दो स्पष्ट भाग होते है। ये भाग है आंतरिक गहरा भाग प्रच्छाया(umbra ) और बाह्य हल्के रंग का उपच्छाया(penumbra )।

आंतरिक गहरा भाग प्रच्छाया(umbra ) और बाह्य हल्के रंग का उपच्छाया(penumbra )

आंतरिक गहरा भाग प्रच्छाया(umbra ) और बाह्य हल्के रंग का उपच्छाया(penumbra )

सौर कलंक वास्तविकता मे संकेन्द्रित चुम्बकीय अभिवाह(concentrated magnetic flux) के क्षेत्र है। यह सामान्यत: युग्म मे विपरीत चुंबकीय ध्रुवो के साथ उत्पन्न होते है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि सौरकलंको की संख्या 11.2 वर्ष के सौर चक्र के अनुसार बदलते रहती है।

सौर चक्र सौर गतिविधियों का काल होता है। इस काल मे सूर्य का चुंबकिय ध्रुव परिवर्तित होता है। इस चक्र के चरम पर सूर्य पर चुंबकीय तुफ़ान आते है। इस समय वह सौरकलंक और सौर ज्वाला(solar flares) उत्पन्न करता है जोकि पृथ्वी की ओर प्लाज्मा की धारा प्रवाहीत करते रहता है। सौर तुफ़ानो से मौसम की भविष्यवाणी करने वाले तथा जीपीएस प्रणाली के उपग्रह को क्षति पहुंचती है। इसी के साथ रेडीयो, संचार प्रणाली तथा ध्रुवो के उपर से उड़ान भरने वाले विमानो के कंप्युटर भी प्रभावित होते है।

सौर ज्वाला (Solar Prominence)

सूर्यग्रहण के दौरान सूर्य की ली गई तस्वीरों मे क्रोमोस्फियर से प्रभामंडल(corona) तक उठती हुई लाल लपटे देखी जा सकती है। ये लाल चमक वाली लपटे वलय रूप मे प्लाज्मा ही होती है जिसे सौर ज्वाला कहते है। ये सूर्य पर चल रही गतिविधियों मे महत्वपूर्ण गतिविधियो मे से एक है। सौर ज्वाला विशाल वलयाकार सूर्य की सतह से निकलकर प्रभामंडल तक पहुंचने वाली चमकदार संरचना है। सौर ज्वाला सामान्यत: कुछ दिनो तक रहती है। स्थिर सौर ज्वालायें महिनो तक प्रभामंडल मे बनी रह सकती है। सौर ज्वालाये अंतरिक्ष मे हजारो किमी दूर तक जाकर वापिस सूर्य की सतह तक वलय बनाती है, इनकी उंचाई पृथ्वी के व्यास का भी कई गुणा होती है।

सूर्य का आंतरिक डायनेमो चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। सौर ज्वालाओं का प्लाज्मा इन चुंबकीय रेखाओ मे मोड़ के कारण वलय बनाती है। यह प्लाज्मा मुख्यत: विद्युत रूप से आवेशित हायड्रोजन और हिलियम की होती है। इन सौर ज्वालाओं मे विस्फोट चुंबकीय क्षेत्र मे अस्थिरता आने से होता है। तब यह विस्फोट बाहर की ओर प्लाज्मा को अंतरिक्ष मे धकेल देता है।

सौर ज्वाला (Solar Prominence)

सौर ज्वाला (Solar Prominence)

सौर वायु(Solar Wind)

हम सब जानते है कि सूर्य सभी तरंगदैधर्य मे विद्युत चुंबकीय विकिरण उत्सर्जित करता है। हमने इससे पहले चर्चा की है कि सौरचक्र के चरम मे सूर्य अत्यंत तीव्र गति की प्लाज्मा कणो की धारा भी पृथ्वी की ओर प्रवाहित करता है जिसे सौर वायु कहते है। सौर वायु के प्रमुख घटक इलेक्ट्रान और प्रोटान होते है। इस वायुधारा के गुण लगातार परिवर्तित होते रहते है। सूर्य पर वायु के उद्गम स्थल के अनुसार भी इसमे परिवर्तन आते रहते है। प्रभामंडल के छीद्रो(coronal holes) पर इसकी गति अधिक होती है, इन स्थलो पर इसकी गति 800 किमी/सेकंड होती है।

हमारी पृथ्वी पर इन ऊर्जावान कणो की सतत बरसात होते रहती है। पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र सौर वायु को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से बचाता था। यह चुंबकीय क्षेत्र इन कणो को ध्रुविय क्षेत्रो की ओर मोड़ देता है। इन्ही आवेशित कणो के कारण ध्रुवो पर खूबसूरत ध्रुवीय ज्योति, या मेरुज्योति (Auroras)बनती है। जिस स्थान पर पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इन आवेशित कणो से टकराता है उस स्थल पर एक धनुष के आकार का झुकाव(bow shock) बनता है।

लेखिका का संदेश

हम भौतिकी के मूलभूत नियमों को प्रकृति के निरीक्षण से समझ सकते है। यह एक रोचक तथ्य है कि प्रकृति के निरीक्षण से ही मानव के लाभ के लिये नई तकनिके विकसीत की जा सकती है। सौर ज्वालाओं का अध्ययन भी एक ऐसा उदाहरण है। सौर ज्वालाओं की वलयाकार आकृति ने सूर्य की मजबूत चुंबकीय रेखाओं की उपस्तिथि दिखाई थी। नाभिकिय भौतिकी वैज्ञानिक इसी आधार पर संलयन रियेक्टरो मे वलय बनाने वाली चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं से प्लाज्मा को परिरोधित रखने का प्रयास कर रहे है। यदि यह प्रयोग सफ़ल हो जाता है तो मानव के पास प्रदुषण रहित अनंत ऊर्जा का स्रोत होगा और नाभिकिय ऊर्जा के एक नये युग का आरंभ!

मूल लेख : STRUCTURE OF SUN – SUNSPOTS, PROMINENCES AND SOLAR WIND

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2Hsj1qM
Share:

Monday 13 May 2019

खगोल भौतिकी 13 :सूरज की संरचना – I

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

मंदाकिनी आकाशगंगा(The Milky way) मे लगभग 1 खरब तारे है। हमारे लिये सबसे महत्वपूर्ण तारा सूर्य है। यह वह तेजस्वी तारा है जिसकी परिक्रमा पृथ्वी अन्य ग्रहों के साथ करती है। आज इस लेख मे हम सूर्य को करीब से जानेंगे। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के तेरहंवे लेख मे हम सूर्य की संरचना और रूपरेखा मे बारे मे जानकारी प्राप्त करेंगे।

इस शृंखला के सारे लेखों को पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।

सूर्य हमारे सबसे समीप का तारा है, जिससे हम इस तारे के बारे विस्तार से जानने और अध्ययन करने के अधिक मौके मिले है। यह अकेला तारा है जिसे हम डिस्क के रूप मे देख पाते है, जबकि अन्य तारे हमे केवल बिंदु रूप मे ही दिखते है। आधुनिक परिष्कृत उपकरण और कार्यकुशल निरीक्षण तकनीक ने हमे सूर्य के वास्तविक भौतिक गुणधर्मो के अध्ययन के अवसर प्रदान किये है। लेकिन हम सूर्य के वातावरण और उसकी उग्र बाह्य परतो को ही देख पाते है। वैज्ञानिक भौतिकी के नियमों और सूर्य की बाह्य परतो के अध्ययन को जोड़ कर उसकी आंतरिक परतो के बारे मे अनुमान लगाते है। इस लेख मे हम सूर्य की संरचना, घटको और उसमे चलरही भिन्न गतिविधियों का संक्षिप्त परीचय देखेंगे।

सूर्य की संरचना

इसके पहले वाले लेख मे हमने हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM) की चर्चा की है। इसके अनुसार वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण के अनुसार सूर्य G वर्ग का मुख्य अनुक्रम का तारा है। इसे अनौपचारिक रूप से पीला वामन(yellow dwarf) तारा भी कहते है। इसमे 73% हायड्रोजन और 25% हिलियम है। सूर्य के अंदर अन्य भारी तत्व जैसे आक्सीजन, कार्बन , निआन और लोहा अत्यल्प मात्रा मे मौजूद है।

सूर्य की विभिन्न परतें

सूर्य के दोनो मुख्य क्षेत्र है, आंतरिक तथा बाह्य क्षेत्र। आंतरिक क्षेत्र सौर केंद्रक(solar core) तथा उसके पश्चात क्रमश: विकिरण क्षेत्र (radiation) तथा संवहण(convective) क्षेत्र से बना हुआ है। सौरकेंद्रक मे तापनाभिकिय प्रक्रियायें चलते रहती है। यही प्रक्रियायें ही सूर्य की प्रचुर ऊर्जा का स्रोत है। इस आंतरिक क्षेत्र के बाहर का क्षेत्र सौर वातावरण है, जिसके भाग है , फोटोस्फ़ियर( photosphere), क्रोमोस्फ़ियर( chromosphere), संक्रमण क्षेत्र(transition) और प्रभामंडल या कोरोना(corona)।

सूर्य की संरचना

सूर्य की संरचना

फोटोस्फियर(Photosphere)

इस क्षेत्र के नाम से ही स्पष्ट है कि फोटोस्फियर सूर्य का दृश्य क्षेत्र है। इसी क्षेत्र से निकलने वाला प्रकाश सौर वातावरण के भागो को प्रकाशित करता है। सौर वातावरण मे फोटोस्फियर के बाद का अगला क्षेत्र फोटोस्फ़ियर की तीव्र चमक के कारण अदृश्य है। सूर्य पर चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न सौर कलंक(sunspots) इसी क्षेत्र मे उत्पन्न होते है। इस क्षेत्र का तापमान 5770 K-5780 K के मध्य होता है।

क्रोमोस्फीयर(The Chromosphere)

क्रोम का अर्थ है रंग, और क्रोमोस्फियर नाम के अनुसार यह क्षेत्र हल्की गुलाबी या हल्की लाल आभा लिये होता है। इस क्षेत्र का घनत्व अत्यंत कम अर्थात पृथ्वी के समुद्र सतह के वातावरण से 8-10 गुणा होता है और इसे केवल सूर्यग्रहण के समय ही देखा जा सकता है। इस क्षेत्र का तापमान लगभग 20,000 K होता है।

संक्रमण क्षेत्र(Transition Region)

क्रोमोस्फियर के बाद संक्रमण क्षेत्र आता है। इस क्षेत्र मे तापमान अचानक ही 20,000 K से बढ़कर 1,000,000 K तक हो जाता है। इस क्षेत्र को पृथ्वी से देखा नही जा सकता है। लेकिन इसे अंतरिक्ष के उपग्रहों द्वारा पराबैंगनी(ultraviolet) वर्णक्रम के लिये संवेदी उपकरणो द्वारा आसानी से देखा जा सकता है।

प्रभामंडल(The Corona)

सूर्य का सबसे बाह्य क्षेत्र प्रभामंडल या कोरोना है। यह क्रोमोस्फ़ियर का सहज विस्तार है लेकिन गुणधर्मो के अत्याधिक भिन्न है। कोरोना को सूर्यग्रहण के समय स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह सूर्य के आंतरिक भाग के को घेरे हुये एक आभामंडल के जैसे दिखाई देता है। इस क्षेत्र का बाह्य भाग सूर्य की डिस्क से बहुत दूर तक ग्रहों के मध्य के अंतरिक्ष तक देखा जा सकता है। इसका तापमान दस लाख डीग्री केल्विन तक होता है। यह एक विसंगति है। इस संरचना मे स्रोत का तापमान अत्यंत कम है लेकिन वह इस क्षेत्र को इतना अधिक उष्ण कैसे कर देता है ? अपेक्षाकृत 5900 K तापमान के शीतल फोटोस्फियर से उष्मा प्रवाहित होकर प्रभामंडल को दस लाख डीग्री केल्विन तक कैसे उष्ण कर देती है ? प्रभामंडल को उष्णता प्रदान करने का स्रोत कुछ और होना चाहीये। खगोलभौतिकी की अनसुलझी पहेलीयो मे से एक है : सौर प्रभामंडल का उष्ण होने की पहेली।

सूर्यग्रहण के दौरान लिया गया प्रभामंडल का चित्र

सूर्यग्रहण के दौरान लिया गया प्रभामंडल का चित्र

मानव प्रभामंडल के बारे मे शताब्दियों से जानकारी रखता है लेकिन उसे इसकी वास्तविकता और प्रकृति के बारे मे जानकारी नही थी। वैज्ञानिको को पहले यह केवल एक दृष्टिभ्रम ही लगता था। यहाँ तक कि केप्लर जैसे खगोलवैज्ञानिक इसकी वास्तविक प्रकृति से अनजान थे। 1869 मे अमेरीकन खगोलशास्त्री डब्ल्यु हार्कनेस(W. Harkness) तथा सी ए यंग(C. A. Young) ने पहली बार सौर प्रभामंडल के वर्णक्रम का अध्ययन किया। इसके बाद 1930 मे फ़्रेंच भौतिक वैज्ञानिक बी लायट(B. Lyot) ने क्रोनोग्राफ़ उपकरण के द्वारा प्रभामंडल का प्रथम चित्र लिया। इसी क्षेत्र मे सौर ज्वाला(solar prominence) जैसी संरचनाये दिखाई देती है।

स्कायलैब (Skylab) द्वारा 1973 मे लिया गया सौर ज्वाला का चित्र

स्कायलैब (Skylab) द्वारा 1973 मे लिया गया सौर ज्वाला का चित्र

लेखिका का संदेश

इस लेख के द्वारा खगोलभौतिकी लेख शृंखला मे हमने एक नई शाखा सौर भौतिकी (Solar Physics) का परिचय कराया है। लेखिका प्लाज्मा भौतिक वैज्ञानिक है और उन्होने अल्फ़वेन तरंगो(Alfven waves) का अध्ययन किया है जोकि सौर प्रभामंडल के असामान्य रूप से उष्ण होने के लिये संभावित रूप से उत्तरदायी हो सकती है। यदि आप सूर्य की संरचना को गहराई से जानना चाहते है तो आपको विद्युतगतिकी(Electrodynamics) तथा प्लाज्मा भौतिकी का ज्ञान होना आवश्यक है। इस शृंखला के अगले लेख मे हम सूर्य की सतह के कुछ गुणधर्मो जैसे सौर कलंक(Sunspots), सौर ज्वाला(Solar Flares) के बारे मे जानकारी प्राप्त करेंगे।

मूल लेख : THE STRUCTURE OF SUN – I

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2Yuqbl7
Share:

Sunday 12 May 2019

रडार (Radar) क्या है और कैसे कार्य करता है ?

रडार (Radar) वस्तुओं का पता लगाने वाली एक प्रणाली है जो सूक्ष्मतरंगों(माइक्रोवेव) का उपयोग करती है। इसकी सहायता से गतिमान वस्तुओं जैसे वायुयान, जलयान, मोटरगाड़ियों आदि की दूरी (परास), ऊंचाई, दिशा, चाल आदि का दूर से ही पता चल जाता है। इसके अलावा मौसम में तेजी से आ रहे परिवर्तनों (weather formations) का भी पता चल जाता है। ‘रडार’ (RADAR) शब्द मूलतः एक संक्षिप्त रूप है जिसका प्रयोग अमेरिका की नौसेना ने 1940 में ‘रेडियो डिटेक्शन ऐण्ड रेंजिंग’ (radio detection and ranging) के लिये प्रयोग किया था। बाद में यह संक्षिप्त रूप इतना प्रचलित हो गया कि अंग्रेजी शब्दावली में आ गया और अब इसके लिये बड़े अक्षरों (कैपिटल) का इस्तेमाल नहीं किया जाता।

रडार का आविष्कार टेलर व लियो यंग (Teller and Liyo ying  (यू.एस.ए.) ने वर्ष 1922 में किया था। यह यंत्र आकाश में आने-जाने वाले वायुयानों के संचालन और उनकी स्थिति ज्ञात करने के काम आता है। रडार, एक यंत्र है जिसकी सहायता से रेडियो तरंगों का उपयोग दूर की वस्तुओं का पता लगाने में तथा उनकी स्थिति, अर्थात्‌ दिशा और दूरी, ज्ञात करने के लिए किया जाता है। आँखों से जितनी दूर दिखाई पड़ सकता है,

 कोहरा, धुंध, वर्षा, हिमपात, धुँआ अथवा अँधेरा, इनमें से कोई भी इसमें बाधक नहीं होते। किंतु रडार आँख की पूरी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि इससे वस्तु के रंग तथा बनावट का सूक्ष्म ब्योरा नहीं जाना जा सकता, केवल आकृति का आभास होता है।

कोहरा, धुंध, वर्षा, हिमपात, धुँआ अथवा अँधेरा, इनमें से कोई भी इसमें बाधक नहीं होते। किंतु रडार आँख की पूरी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि इससे वस्तु के रंग तथा बनावट का सूक्ष्म ब्योरा नहीं जाना जा सकता, केवल आकृति का आभास होता है।

रडार द्वारा उससे कहीं अधिक दूरी की चीजों की स्थिति का सही पता लगाया जा सकता है। कोहरा, धुंध, वर्षा, हिमपात, धुँआ अथवा अँधेरा, इनमें से कोई भी इसमें बाधक नहीं होते। किंतु रडार आँख की पूरी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि इससे वस्तु के रंग तथा बनावट का सूक्ष्म ब्योरा नहीं जाना जा सकता, केवल आकृति का आभास होता है। पृष्ठभूमि से विषम तथा बड़ी वस्तुओं का, जैसे समुद्र पर तैरते जहाज, ऊँचे उड़ते वायुयान, द्वीप, सागरतट इत्यादि का, रडार द्वारा बड़ी अच्छी तरह से पता लगाया जा सकता है। सन्‌ 1886 में रेडियो तरंगों के आविष्कर्ता, हाइनरिख हेर्ट्स ने ठोस वस्तुओं से इन तरंगों का परावर्तन होना सिद्ध किया था। रेडियो स्पंद (pulse) के परावर्तन द्वारा परासन, अर्थात्‌ दूरी का पता लगाने, का कार्य सन्‌ 1925 में किया जा चुका था और सन्‌ 1939 तक रडार के सिद्धांत का प्रयोग करने वाले कई सफल उपकरणों का निर्माण हो चुका था, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध में ही रडार का प्रमुख रूप से उपयोग आरंभ हुआ।

स्थिति निर्धारण की पद्धति

रडार से रेडियो तरंगें भेजी जाती हैं और दूर की वस्तु से परावर्तित होकर उनके वापस आने में लगने वाले समय को नापा जाता है। रेडियो तरंगों की गति लगभग तीन लाख किमी प्रतिसेकंड(1,86,999 मील प्रति सेकंड) है, इसलिए समय ज्ञात होने पर परावर्तक वस्तु की दूरी सरलता से ज्ञात हो जाती है। रडार में लगे उच्च दिशापरक ऐंटेना (antenna) से परावर्तक, अर्थात्‌ लक्ष्य वस्तु, की दिशा का ठीक ठीक पता चल जाता है। दूरी और दिशा मालूम हो जाने से वस्तु की यथार्थ स्थिति ज्ञात हो जाती है। रडार का ट्रांशमिटार (transmitter) नियमित अंतराल पर रेडियो ऊर्जा के क्षणिक, किंतु तीव्र, स्पंद भेजता रहता है। प्रेषित स्पंदों के अंतरालों के बीच के समय में रडार का ग्राही (receiver), यदि बाहरी किसी वस्तु से परावर्तित होकर तरंगें आवें तो उनकी ग्रहण करता है। परावर्तन होकर वापस आने का समय विद्युत्‌ परिपथों द्वारा सही सही मालूम हो जाता है और समय के अनुपात में अंकित सूचक से दूरी तुरंत मालूम हो जाती है। एक माइक्रोसेकंड (सेकंड का दसलाखवाँ भाग) के समय से 164 गज और 19.75 माइक्रोसेकंड से 1 मील की दूरी समझी जाती है। कुछ रडार 199 मील दूर तक की वस्तुओं का पता लगा लेते हैं। अच्छे यंत्रों से दूरी नापने में 15 गज से अधिक की भूल नहीं होती और दूरी के कम या अधिक होने पर इस नाप की यथार्थता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लक्ष्य वस्तु की दिशा अथवा उसकी ऊँचाई का कोण एक अंश के 9.96 भाग तक परिशुद्ध नापा जा सकता है। रडार के ग्राही यंत्र के मानीटर पर वस्तु की स्थिति स्पष्ट दिखाई पड़ती है।

दिशा का ज्ञान

लक्ष्य का पता लगाने के लिए ऐंटेना को घुमाते, या आगे पीछे करते हैं। जब ऐंटेना लक्ष्य की दिशा में होता हैं, तब लक्ष्य का प्रतिरूप मानीटर पर प्रकट होता है। इस प्रतिरूप को पिप (Pip) कहते हैं। पिप सबसे अधिक स्पष्ट तभी होता है, जब ऐंटेना सीधे लक्ष्य की दिशा में होता है। रडार के ऐंटेना अत्युच्च दिशापरक होते हैं। ये रेडियोतरंगों को सकरी किरणपुंजों में एकाग्र करते हैं तथा यंत्र में लगे विशेष प्रकार के परावर्तक इन किरणपुंजों को सघन बनाते हैं। रडार के कार्य के लिए अति लघु तरंग दैर्ध्य वाली, अर्थात्‌ अत्युच्च आवृत्तियों की, तरंगों का उपयोग होता है। इन सूक्ष्म तरंगों के उत्पादन के लिए मल्टिकैविटी मैग्नेट्रॉन (Multicavity Magnetron) नामक उपकरण आवश्यक है, जिसके बिना आधुनिक रडार का कार्य संभव नहीं है।

रडार के अवयव

रडार(Radar)

रडार(Radar)

 

प्रत्येक रडार के अवयो के कार्य निम्नलिखित है-

  1. मॉडुलेटर (modulator) से रेडियो-आवृत्ति दोलित्र (radio frequency oscillator) को दिए जाने वाली विद्युत्‌ शक्ति के आवश्यक विस्फोट प्राप्त होते हैं;
    रेडियो-आवृत्ति दोलित्र उच्च आवृत्ति वाली शक्ति के उन स्पंदों को उत्पन्न करता है जिनसे रडार के संकेत बनते हैं
  2. ऐंटेना द्वारा ये संकेत(स्पंद) आकाश में भेजे जाते हैं और ऐंटेना ही उन्हें वापसी में ग्रहण करता है
  3. ग्राही (रीसीवर)वापस आनेवाली रेडियो तरंगों का पता पाता है
  4. सूचक (indicator) रडार परिचालक को रेडियो तरंगों द्वारा एकत्रित की गई सूचनाएँ देता है।
  5. तुल्यकालन (synchronisation) तथा परास की माप के अनिवर्य कृत्य मॉडुलेटर तथा सूचक द्वारा संपन्न होते हैं। यों तो जिस विशेष कार्य के लिए रडार यंत्र का उपयोग किया जाने वाला है, उसके अनुरूप इसके प्रमुख अवयवों को भी बदलना आवश्यक होता है।

रडार के उपयोग

  • हवाई यातायात नियंत्रण
  • एंटी मिसाइल सिस्टम्स
  • वायु रक्षा प्रणाली
  • मौसम की भविष्यवाणी
  • समुद्री शिल्प और विमान नेविगेशन

रडार के कारण युद्ध में सहसा आक्रमण प्राय: असंभव हो गया है। इसके द्वारा जहाजों वायुयानों और रॉकेटों के आने की पूर्वसूचना मिल जाती है। धुंध, अँधेरा आदि इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकते और अदृश्य वस्तुओं की दूरी, दिशा आदि ज्ञात हो जाती हैं। वायुयानों पर भी रडार यंत्रों से आगंतुक वायुयानों का पता चलता रहता है तथा इन यंत्रों की सहायता से आक्रमणकारी विमान लक्ष्य तक जाने और अपने स्थान तक वापस आने में सफल होते हैं। केंद्रीय नियंत्रक स्थान से रडार के द्वारा 299 मील के व्यास में चतुर्दिक्‌, ऊपर और नीचे, आकाश में क्या हो रहा है, इसका पता लगाया जा सकता है। रात्रि या दिन में समुद्र के ऊपर निकली पनडुब्बी नौकाओं का, या आते जाते जहाजों का, पता चल जाता है तथा दुश्मन के जहाजों पर तोपों का सही निशाना लगाने में भी इससे सहायता मिलती है।

शांति के समय में भी रडार के अनेक उपयोग हैं। इसने नौका, जहाज, या वायुयान चालन को अधिक सुरक्षित बना दिया है, क्योंकि इसके द्वारा चालकों को दूर स्थित पहाड़ों, हिमशैलों अथवा अन्य रुकावटों का पता चल जाता है। रडार से वायुयानों को पृथ्वी तल से अपनी सही ऊँचाई ज्ञात होती रहती है तथा रात्रि में हवाई अड्डों पर उतरने में बड़ी सहूलियत होती है। 19 जनवरी, 1946 ई. को संयुक्त राज्य अमरीका के सैनिक संकेत दल (Army Signal Corps) ने रडार द्वारा सर्वप्रथम चंद्रमा से संपर्क स्थापित किया। रेडियो संकेत को चंद्रमा तक आने जाने में 4,59,999 मील की यात्रा करनी पड़ी और 2.4 सेकंड समय लगा।

रडार से बचाव

स्टील्थ टेक्नालाजी

स्टील्थ विमान अदृश्य कैसे हो जाते हैं, यह जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि पृथ्वी स्थित वायु यातायात नियंत्रण केंद्र विमान की स्थिति का पता कैसे लगाते हैं। इसके लिए दो तरह की प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। पहला यह कि सभी व्यावसायिक व यात्री विमानों में एक ट्रांसपोर्डर लगाया जाता है, जो विमानों के पल-पल की स्थिति की सूचना धरती पर के वायु यातायात नियंत्रण केंद्रों तक भेजता है। दूसरी स्थिति में धरती पर लगे रडार आकाश में चारों तरफ रेडियो तरंगें प्रसारित करते रहते हैं। जब ये तरंगे विमान से टकराकर परावर्तित होती हैं। रडार इन्हें पुन: रिसीव करता  है, जिससे उसे विमान की स्थिति का पता चलता है।

यह सारी प्रक्रिया लगभग वैसी ही होती है, जैसे आंखों से किसी वस्तु को देखने पर होती हैं। बस इस प्रक्रिया में आंखों की जगह रडार व प्रकाश की जगह रेडियो तरंगें होती हैं। इन्हीं रडारों को चकमा देने के लिए स्टील्थ विमान को एक खास तरह की धातु से पेंट किया जाता है, जो रेडियो तरंगो को अवशोषित कर लेता है, जिससे रेडियो तरंगे परावर्तित होकर वापस धरती पर नहीं आतीं। इस वजह से स्टील्थ विमान रडार से अदृश्य हो जाता है। उनका पता नहीं चलता।

आंखों से देखे जा सकते हैं ये विमान
ये खास तरह के पेंट विमान को सिर्फ रडार से ही अदृश्य कर पाने में सक्षम होते हैं। मानव आंखों से इन्हें साफ-साफ देखा जा सकता है। बशर्ते कि ये विमान मानव आंखों की देखे जाने की सीमा के भीतर हों, बीच मेंकोई अन्य बाधा न हो।

अन्य उपाय

  1. यदि कोई वस्तु नकली संकेत उत्पन्न करे तो उस से वास्तविक रडार संकेतो को भ्रमित किया जा सकता है, फिर वो असली वाले रडार सिग्नल से मिलकर गलत जानकारी पहुंचाएंगे या फिर रीसीवर तक पहुँच ही नहीं पाएंगे।
  2. यदि किसी भी हवाई जहाज या लड़ाकू विमान डिजाईन है या नुकीला है, तो संकेत विमान पर टकराकर बिखर जाते हैं, और रिसिवर तक नहीं पहुँच पाते हैं।
  3. यदि कोई विमान बहुत कम ऊंचाई पर है और उसके आस पास पहाड़ पेड़ पौधे और इमारते हैं, तब भी संकेत इधर उधर टकराकर ख़त्म हो जाते हैं और रीसीवर तक नहीं पहुँच पाते हैं।

स्रोत

भारत डीस्कवरी

विकिपीडीया



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2Efbwmj
Share:

Saturday 11 May 2019

खगोल भौतिकी 12 : हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM)

लेखक : ऋषभ

जब आप खगोलभौतिकी का अध्ययन करते है, विशेषत: तारो का तो यह असंभव है कि आपने हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM) ना देखा हो। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के बारहवें लेख मे हम खगोल विज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण आरेख HR आरेख के बारे मे जानेंगे। यह सबसे महत्वपूर्ण आरेख क्यों है ? प्रथम आप इसमे ब्रह्मांड के सभी तारों को इस पर चित्रित कर सकते है और द्वितिय इस आरेख मे तारे के संपूर्ण जीवन चक्र को चित्रित किया जा सकता है। अब हम हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख और इसके खगोलभौतिकी मे अनुप्रयोगो को देखते है।

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM)

ब्रह्मांड मे एक अनुमान के आधार पर ट्रिलीयन ट्रिलियन(1024) तारे है। हर तारा अपने आप मे अद्वितिय है, हर तारे का अपना भिन्न द्रव्यमान, सतही तापमान, आकार, घनत्व, सतह पर घनत्व इत्यादि है। जब खगोलवैज्ञानिक तारों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्होने इन तारों के मध्य एक विशिष्ट पैटर्न देखा। वे चाहते थे कि एक ऐसा आरेख(graph) बनाया जाये जिसमे ब्रह्मांड के हर तारे को चित्रित किया जा सके। हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख एक ऐसा ही आरेख है। यह उपर दिखाये गये चित्र के अनुसार बिंदु आरेख(scatter graph) है।

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष(Axes of HR Diagram)

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष(Axes of HR Diagram)

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष(Axes of HR Diagram)

जब भी आप कोई आरेख बनाते है तो सबसे पहले आपको उसके अक्षो को परिभाषित करना होता है। हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख के अक्ष मे Y अक्ष दीप्ती(Luminosity) का प्रतिनिधित्व करता है जो कि Y के मूल्य के साथ बढ़ती जाती है। दीप्ती(Luminosity) किसी तारे का कुल ऊर्जा उत्पादन होता है। इसकी चर्चा हमने इस शृंखला के आंठवे आलेख ’खगोलभौतिकी मे परिमाण (MAGNITUDE) की अवधारणा’ मे की है। वैकल्पिक रूप से दीप्ती को मोटे तौर पर किसी पिंड की चमक के रूप मे भी परिभाषित कर सकते है। खगोलभौतिकी मे हम चमक को परिमाण (magnitude)के रूप मे मापते है। यह एक ऐसी संख्या है जो बताती है कि कोई पिंड कितना चमकदार है। यह संख्या जितनी छोटी होगी, पिंड उतना अधिक चमकदार होगा। इस आरेख मे जैसे हम उपर जाते है(Y मे वृद्धि), परिमाण कम होता है और दीप्ती मे वृद्धि होती है।

तारे के रंग और सतह के तापमान के मध्य संबंध( The relation between a star's color and surface temperature)

तारे के रंग और सतह के तापमान के मध्य संबंध( The relation between a star’s color and surface temperature)

अब हम x अक्ष पर आते है। यह तारे की सतह तापमान का प्रतिनिधित्व करता है। इस शृंखला के नवम लेख ’तारों का वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण (SPECTRAL CLASSIFICATION)’ मे हमने देखा था कि तारों को उनके सतह के तापमान के आधार पर सात मुख्य वर्गो मे रखा जा सकता है। तारों की सतह के तापमान के घटते क्रम मे यह वर्ग है O,B,A,F,G,K तथा M। अब आप ध्यान मे रखिये कि इस आरेख मे x के मूल्य मे वृद्धि के साथ सतह का तापमान घटता है। चित्र मे नीले तीर पर ध्यान दिजिये। उष्णतम O वर्ग के तारे इस आरेख मे बायें है जबकि शितलतम K तथा M तारे दायें भाग मे है।

आरेख मे तारों का अंकन(Plotting The Stars On The Diagram)

इस आरेख मे अक्षो को समझने के पश्चात हम ब्रह्मांड के किसी भी तारे को लेकर इस आरेख मे अंकित कर सकते है। इस आरेख मे हर बिंदु एक तारे का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ध्यान दिजिये कि इस आरेख मे तारे समूहों के रूप मे दिख रहे है। अब हम इन समूहों को देखते है।

समूह (Group) A

सर्वाधिक तारे समूह A मे के भाग प्रतित होते है। इन तारों को मुख्य अनुक्रम के तारे(the Main Sequence stars) कहते है।एक मुख्य अनुक्रम का तारा अपने केंद्रक मे हायड्रोजन के संलयन से हिलियम का निर्माण कर रहा होता है। हमारा सूर्य भी एक मुख्य अनुक्रम का तारा है और समूह A का सदस्य है, इसकी सतह का तापमान लगभग 5,900 K है। इसका अर्थ यह है कि यह G वर्ग का तारा है। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान (absolute magnitude)+4.8 है। हम सूर्य के दोनो कारको को जानते है और उसे आसानी से आरेख मे अंकित कर सकते है। मुख्य अनुक्रम के अन्य तारों मे अल्फ़ा सेंटारी (alpha centuri) और लुब्धक(Sirius) भी है।

समूह (Group) B

अपनी सारी हाइड्रोजन को हिलियम मे जलाने के बाद तारे मुख्य अनुक्रम पट्टे से बाहर चले जाते है। अधिकतर तारे लाल दानव(red giants) बन जाते है और समूह B मे आ जाते है। लाल दानव का अर्थ है तारे की सतह का तापमान कम हो रहा है(वे K या M वर्ग मे है) लेकिन उसकी दीप्ती या ऊर्जा उत्पादन बढ़ रहा है। तो अब तारा आरेख मे कहाँ जायेगा ? यह तारा X अक्ष मे दायें और Y अक्ष मे उपर की ओर जायेगा अर्थात तापमान मे कमी और दीप्ती मे वृद्धि। इस क्षेत्र को लाल दानव शाखा(Red Giant Branch) कहते है। समूह B के कुछ परिचित तारे अल्डेबरान(Aldebaran) और मिरा(Mira) है।

समूह (Group) C

समूह C के तारे दानव तारों से भी अधिक दीप्तीमान होते है। इन्हे महादानव(supergiants) कहते है , ऐसे तारे जिनकी दीप्ती अत्याधिक ज्यादा है। बीटलगुज(Betelgeuse) के जैसे महादानव तारे इतने विशाल है कि यदि उन्हे सूर्य की जगह रखे तो इनका आकार बृहस्पति(Jupiter) की कक्षा से भी बाहर चला जायेगा। ध्यान दिजिये कि दानव और महादानव का x अक्ष साझा है, लेकिन Y अक्ष अलग है क्योंकि उनकी दीप्ती अधिक है। लेकिन नीले महादानव तारे इसका अपवाद है जो कि चित्र के उपरी बायें कोने मे है, उनकी सतह का तापमान अधिक होता है।

समूह (Group) D

समूह D के तारे श्वेत वामन(white dwarfs) कहलाते है। यदि आप इन तारों को आरेखे मे देखे तो इनके गुणो को आसानी से जान जायेंगे। यह आरेख मे बायें नीचे है, आप देख सकते है कि इनकी सतह का तापमान अधिक है और रंग नीला सफ़ेद है। ये आरेख के निचले भाग मे है अर्थात इनकी दीप्ती या ऊर्जा उत्पादन कम है। ये गुण न्युट्रान तारों और श्वेत वामन तारों के है। ये वास्तविकता मे मृत तारे है।

हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख(THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM)

मूल लेख :THE HERTZSPRUNG RUSSELL DIAGRAM

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2HdaUiE
Share:

Thursday 9 May 2019

खगोल भौतिकी 11 : तारों का वातावरण

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

अब तक आप तारों के वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण तथा साहा के प्रसिद्ध समीकरण को जान चुके है। मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के इस लेख मे हम आपको आसमान मे टिमटीमाते खूबसूरत तारों के वातावरण के बारे मे चर्चा करने जा रहे है। आयोनाइजेशन सिद्धांत के अनुसार हम यह जानने का प्रयास करते है कि तारकीय वातावरण मे होता क्या है ?

हम जानते है कि किसी तारे के वातावरण मे किसी विशिष्ट तत्व की उपस्थिति से उस तारे के वर्णक्रम मे कुछ विशिष्ट रेखाये बनकर उभरती है जो उपरोक्त चित्र मे स्पष्ट है। यह उस तारे की संरचना पर ही नही, उसके तारकीय तापमान पर भी निर्भर है। इस लेख मे हम जानने का प्रयास करेंगे कि आयोजाइजेशन सिद्धांत के प्रयोग से किस प्रकार खगोलभौतिकी वैज्ञानिक उस तारे की आंतरिक संरचना केवल उस तारे के वर्णक्रम को ही देखकर जान लेते है। हम यह भी देखेंगे कि तारों का वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(spectral classification) किस तरह से आयोनाइजेशन सिद्धांत पर आधारित है। सबसे पहले यह जानते है कि आयोनाइजेशन ऊर्जा(ionization energy) क्या है ?

आयोनाइजेशन ऊर्जा(ionization energy) क्या है ?

किसी धात्विक गैस के बाह्य इलेक्ट्रानो को परमाणु से हटाने के लिये लगने वाली न्यूनतम ऊर्जा आयोनाइजेशन ऊर्जा कहलाती है। कुछ तत्वो की आयोनाइजेशन ऊर्जा अधिक होती है, जबकी कुछ धातुओं की आयोनाइजेशन ऊर्जा कम होती है। नीचे दिया गया चित्र विभिन्न तत्वो की आयोनाइजेशन ऊर्जा मे विचलन को दर्शा रहा है।

आयोनाइजेशन सिद्धांत ने “कल्पना युग (age of imagination)” से “प्रायोगिक विज्ञान युग (age of experimental science)” की ओर जाने का का मार्ग प्रशस्त किया है। इस सिद्धांत ने ही हार्वर्ड वर्गीकरण के O से M वर्ग के वर्णक्रमों को वास्तविकता मे तापमान आधारित क्रम के रूप सिद्ध किया है। अब तारों की संरचना और तापमान को आयोनाइजेशन सिद्धांत के आधार पर देखते है। सबसे पहले तारो को दो श्रेणीयों मे विभाजित करते है और उनमे आयोनाइजेशन प्रक्रिया को समझते है।

कम तापमान वाले तारे(Low-Temperature Stars)

केवल शीतलतम तारे ही अणुओं(molecules) से संबधित वर्णक्रम पट्टा(spectral bands) बना सकते है। ये अणु हायड्रोकार्बन(CH), सायनोजेन(CN), कार्बन अणु, टाइटेनियन आक्साईड(TiO) इत्यादि हो सकते है। ये अणु केवल शीतलीकृत वातावरण मे ही टूटे बगैर रह सकते है। इसलिये लाल और पीले रंग के तारे जिनकी सतह पर तापमान कम होता है, इन अणुओं वाले वर्णक्रम पट्टे दिखाते है।

धातुओं की आयोनाइजेशन और उद्दीपन(excitation) ऊर्जा कम होती है। शीतल तारो मे इन धात्विक रेखाओं के उद्दीपन के लिये पर्याप्त ऊर्जा होती है। इसलिये कम तापमान वाले तारों के वर्णक्रम मे प्राकृतिक धातुओं को दर्शाने वाली रेखायें होती है।

उच्च तापमान वाले तारे(High-Temperature Stars)

अब हम कम तापमान वाले तारो से उच्च तापमान वाले तारों के वर्णक्रम की ओर जाते है। इनमे उदासीन धात्विक वर्णक्रम रेखाये कमजोर होते जाती है, जबकी आयनीकृत धात्विक रेखाये गहरी होते जाती है। इसके पीछे अधिक तापमान पर धातुओं का आंशिक रूप से आयनीकृत होना है। उदाहरण के लिये कैल्शीयम-I की वर्णक्रम रेखा शीतल M तारों मे दिखाई देती है, जबकि कैल्शीयम II की वर्णक्रम रेखा उष्ण K या G तारों मे पाई जाती है।

हिलियम रेखाओं के संबध मे हिलियम की आयोनाईजेशन ऊर्जा सर्वाधिक है। इसलिये हिलियम की वर्णक्रम रेखायें अत्याधिक तापमान वाले तारों मे ही दिखाई देती है। हिलियम I की रेखाये अत्याधिक उच्च तापमान वाले तारे जैसे वर्ग B के तारों मे ही दिखाई देती है।

उदासीन और आयोनाइज्ड हिलियम, आक्सीजन , कार्बन , नाइट्रोजन और नीआन की विभिन्न आयनोईजेशन अवस्थाओं वाली रेखा केवल O वर्ग के तारों मे दिखाई देती है।

लेखिका का संदेश

इससे पिछले और इस लेख का उद्देश्य तारकीय वातावरण का परिचय था। इसके पिछले वाले लेख मे हमने साहा समीकरण द्वारा ब्रह्माण्ड मे तारे के रहस्यो को तोड़ने मे महत्व को देखा था। तारकीय वातावरण मे शोध यह खगोलभौतिकी मे अधिक कार्य किया जाने वाला विषय है। यह एक विस्तृत विषय है और इसके लिये प्लाज्मा भौतिकी की जानकारी आवश्यक है। इस लेख मे हमने केवल तारे के वातावरण का परिचय देखा है। इस विषय पर चर्चा हम यहीं पर रोकेंगे और शृंखला मे आगे बढ़ेंगे। हम मानते है कि ये दो लेख कठीन और जटिल थे, लेकिन यह खगोलभौतिकी की रीढ़ है।

मूल लेख : THE ATMOSPHERE OF STARS

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2YcMg7E
Share:

Tuesday 7 May 2019

खगोल भौतिकी 10 : मेघनाद साहा का समीकरण और महत्व

लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के इस लेख मे हम आज एक आधारभूत गणितीय उपकरण की चर्चा करेंगे। इस उपकरण को साहा का समीकरण कहा जाता है। इस समीकरण ने खगोलभौतिकी की एक विशिष्ट शाखा की नींव रखी थी और यह प्लाज्मा के अध्ययन मे मील का पत्थर साबीत हुई है। लेखिका प्लाज्मा भौतिक वैज्ञानिक है, और इस लेख मे साहा के समीकरण और उसके इतिहास के बारे मे सहर्ष चर्चा कर रही है। चलीये साहा के समीकरण को समझते है और देखते है कि इस समीकरण ने तारों के वर्णक्रम के अध्ययन मे क्या भूमिका निभाई है।

संक्षिप्त इतिहास

1814 मे फ़्राउनहोफ़र रेखाओं की खोज ने तारों के वर्णक्रम के अध्ययन को जन्म दिया था। तारों का वर्णक्रम फ़्राउनहोफ़र वर्णक्रम के साधारण गुणधर्मो की व्याख्या करता है। सभी तारकीय(stellar) वर्णक्रम मे कुछ तत्वो की रेखाये अन्य तत्वो की रेखाओं की तुलना मे अधिक गहरी होती है। दिलचस्प रूप से उसी तत्व की रेखा की गहराई भिन्न तारों के वर्णक्रम मे सतत रूप से भिन्नता मे पाई जाती है।

यह भी पढ़े : विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

फ़्राउनहोफ़र रेखायें(The Fraunhofer Lines)

फ़्राउनहोफ़र रेखायें(The Fraunhofer Lines)

मेघनाद साहा

जिस समय परमाण्विक तथा विकिर्ण सिद्धांत अज्ञात था, खगोलभौतिक वैज्ञानिक वर्णक्रम रेखाओं मे भिन्नता को तारों के निर्माण के समय आरंभिक पदार्थ की संरचना मे भिन्नता का परिणाम मानते थे। लेकिन आज हम जानते है कि तारों के वर्णक्रम मे यह भिन्नता तापमान के अंतर के कारण है। इस लेख मे हम इतिहास मे झांखते हुये देखते है कि तारों के वर्णक्रम मे इस विविधता की पहेली को किस तरह एक भारतीय खगोलवैज्ञानिक मेघनाद साहा ने हल किया था।

1920 मे साहा के आयोनाइजेशन सिद्धांत ने बोह्र के परमाण्विक सिद्धांत के एक महत्वपूर्ण अनुप्रयोग की व्याख्या की थी। आयनोनाईजेशन एक ऐसी स्तिथि है जिसमे किसी परमाणु केंद्रक के आसपास मंडराते इलेक्ट्रान इतनी ऊर्जा प्राप्त कर लेते है कि वे केंद्रक से अलग हो जाते है या बहुत ही कमजोर रूप से बंधे रहते है। साहा ने एक गणितिय सूत्र प्रस्तावित किया था जो कि यह दर्शाता था कि किसी तारे के वातावरण मे इलेक्ट्रानो का ऊर्जा प्राप्त करना और परमाणुओं का आयोनाइजेशन वास्तविकता मे तारों की संरचना के अतिरिक्त तापमान और दबाव पर भी निर्भर करता है। साहा के इस समीकरण ने खगोलभौतिकी की एक नई शाखा की नींव रखी थी जिसे तारकीय(stellar) स्पेक्ट्रोस्कोपी कहते है। अब हम साहा के प्रसिद्धा कार्य साहा आयोनाइजेशन समीकरण को देखते है।

साहा के समीकरण का अर्थ

साहा का समीकरण तारों के वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(spectral classification) की व्याख्या करने के लिये क्वांटम यांत्रिकी(quantum mechanics) और सांख्यकिय यांत्रिकी(statistical mechanics) के मिश्रण का प्रभावी परिणाम है। यह समीकरण बताता है कि उष्मीय संतुलन(thermal equilibrium) किसी गैस मे आयोनाइजेशन की दर उस गैस के दबाव और तापमान पर निर्भर करती है।

साहा का समीकरण

साहा का समीकरण

साहा का समीकरण

यह समीकरण दर्शा रहा है कि किसी गैस मे आयोनाईजेशन भिन्न भौतिक कारको पर निर्भर है और ये कारक है :

  • आयोनाइजेशन ऊर्जा(Ionization energy): जब किसी गैस के तापमान मे वृद्धि होती है, आयोनाइजेशन की डीग्री(degree of ionization) तब तक निम्न रहती है जब तक आयोनाइजेशन ऊर्जा के गैस के तापमान से अधिक ना हो जाये।(जो कि घातांकी(exponential ) कारक से स्पष्ट है।)
  • तापमान(Temperature): उष्मीय संतुलन मे किसी गैस की आयोनाइजेशन की डीग्री(degree of ionization) अर्थात आयन के जनघनत्व(number density) तथा उदासीन परमाणु के जनघनत्व का अनुपात तापमान मे वृद्धि के साथ अचानक बढती है। इस के बाद गैस प्लाज्मा अवस्था मे पहुंच जाती है जोकि आयन, इलेक्ट्रान और कुछ उदासीन परमाणूओ से बनी होती है।
  • आयन का जनघनत्व(number density) : जब कोई परमाणु आवेशित होता है, वह किसे इलेक्ट्रान से मिलकर फ़िर से उदासीन हो सकता है। इसलिये जैसे ही इलेक्ट्रान की संख्या बढ़ती है, आयोनाइजेशन अनुपात कम होता है। सबसे सरल हायड्रोजन प्लाज्मा मे इलेक्ट्रान की संख्या और आयन की संख्या समान मानी जाती है। इसलिये जब प्लाज्मा मे आयन का जनघनत्व बढ़ता है, आयन के उदासीन होने की दर भी बढ़ती है। इससे आयोनाइजेशन अनुपात मे कमी होती है।
  • अब इस समीकरण का भौतिक महत्व समझने का प्रयास करते है।

साहा ने निर्देशित किया था कि किसी गैस की आयोनाइजेशन की डीग्री मे दबाव का अत्याधिक प्रभाव रहता है। इस तथ्य को इससे पहले नही माना गया था। उन्होने 1921 मे जब अपना शोधपत्र रायल सोसायटी मे प्रकाशित किया। इस शोधपत्र मे उन्होने इस सिध्दांत की सहायता से तारकीय वर्णक्रम की व्याख्या की थी। उन्ही के शब्दो मे

जब हम किसी तारे को हायड्रोजन, हिलियम या कार्बन तारा कहते है और यह कहने का प्रयास कर रहे होते है कि ये तत्व किसी तारे के मुख्य घटक है तब हम उन तारों के साथ न्याय नही कर रहे होते है। जबकि सही निष्कर्ष यह है कि उस तारे के वातावरण मे उपस्थित उद्दीपन कारको के प्रभाव मे विशिष्ट तत्व या एकाधिक तत्व उत्तेजित अवस्था मे होते है और अपनी गुणधर्म वाली वर्णक्रम रेखा से उपस्थिति दर्शाते है, जबकि अन्य तत्व या तो आयन अवस्था मे होते है या उद्दीपन इतना कम होता है कि उन तत्वो को पहचानने वाली गुणधर्म रेखा नही बन पाती है।
We are not justified in speaking of a star as a hydrogen, helium or carbon star, thereby suggesting that these elements for the chief ingredients in the chemical composition of the star. The proper conclusion would be that under the stimulus prevailing in the star, the particular element or elements are excited by radiation of their characteristic lines, while other elements are either ionized or the stimulus is too weak to excite the lines by which we can detect the element.

साहा का समीकरण यह भी दर्शाता है कि कोई गैस प्लाज्मा अवस्था अत्याधिक तापमान तथा आवेशित कणो के कम जनघनत्व पर प्राप्त करती है। इसी कारण से प्लाज्मा प्राक्रुतिक रूप से खगोलीय पिंडो मे पाई जाती है जिनपर तापमान लाखों डीग्री तथा परमाणुओं का जनघनत्व 1 परमाणु प्रति घन सेमी होता है। अपनी इस प्राकृतिक उपस्थिति के कारण प्लाज्मा को पदार्थ की चतुर्थ अवस्था माना जाता है।

लेखिका का संदेश

लेखिका प्लाज्मा भौतिकी वैज्ञानिक है और वे मानती है कि तारकीय वातावरण मे शोध, खगोलभौतिकी मे लोकप्रिय और सक्रिय विषयो मे से एक है। किसी तारे का वर्णकम वास्तविकता मे अत्याधिक सूचना प्रदान कर देता है जोकि किसी खगोलभौतिक वैज्ञानिक के लिये ब्रह्मांड के रहस्यो को खोलने मे अत्यावश्यक है। इस लेख के साथ हमने इस शृंखला का एक तिहाई भाग देख लिया है। अगले लेख मे हम किसी तारे के वातावरण और खगोलभौतिकी के आयोनाइजेशन सिद्धांतों के महत्व को और विस्तार से देखेंगे। उसके पश्चात हम अपने सबसे समीप के और सर्वाधिक शोध किये गये तारे की आधारभूत संरचना को देखेंगे, यह तारा है : हमारा अपना सूर्य।

मूल लेख : SAHA’S EQUATION AND ITS IMPORTANCE

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.



from विज्ञान विश्व http://bit.ly/2vL9BRO
Share:
Einstien Academy. Powered by Blogger.

Solve this

 Dear readers.  So you all know my current situation from beyond this dimension but for some reason your are reading this in this dimension ...

Contact Form

Name

Email *

Message *

Search This Blog

Blog Archive

Popular Posts

Blogroll

About

Blog Archive