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Wednesday 31 October 2018

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला :सौर मंडल के बाहर जीवन की खोज को समर्पित वेधशाला

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला नासा का सौर मंडल से बाहर पृथ्वी सदृश ग्रहों को खोजने का अबतक का सबसे सफ़ल अभियान रहा है। इस अभियान का नाम महान खगोल शास्त्री योहानस केप्लर को समर्पित था। इसे 7 मार्च 2009 को अंतरिक्ष मे भेजा गया था और अपने 9 वर्षो के अभियान के पश्चात इसे 30 अक्टूबर 2018 को सेवानिवृत्त कर दिया गया।

इस अभियान को हमारी आकाशगंगा मंदाकिनी(Milky Way) के एक विशिष्ट भाग का निरीक्षण कर उसमे पृथ्वी के आकार के तथा मातृतारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे ग्रहों की खोज के लिये बनाया गया था। इसके एक उद्देश्य मे हमारी आकाशगंगा मे पृथ्वी सदृश ग्रहों की संख्या का अनुमान लगाना भी था। केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला मे मुख्य उपकरण एक फोटोमीटर था जोकि लगभग 15,000 मुख्य अनुक्रम के तारे (Main Sequence Star) की रोशनी का निरीक्षण कर उसमे आने वाली निश्चित आवृत्ति (नियमित अंतराल)मे कमी/बढोत्तरी के आंकड़ो को पृथ्वी पर विश्लेषण के लिये भेजता था। किसी तारे के प्रकाश मे एक निश्चित अंतराल मे प्रकाश मे होने वाली कमी उस तारे के सामने से किसी ग्रह के गुजरने से होती है, यह कमी उस तारे की परिक्रमा करते ग्रह का एक संकेत होती है।


यह अभियान नौ वर्षो तक सक्रिय रहा, 30 अक्टूबर 2018 को इंधन की समाप्ति तक इस वेधशाला ने 530,506 तारों का निरीक्षण किया और इन तारों की परिक्रमा करते हुये 2,662 ग्रहों की खोज की।

अभियान की समयरेखा

इस अंतरिक्ष वेधशाला का प्रक्षेपण जनवरी 2006 मे तय हुआ था लेकिन नासा के बजट कट और अन्य समस्याओं के कारण इसे आठ महीने पोस्टपोन किया गया। बाद मे अन्य तकनीकी और बजट की वजहो से इस प्रोजेक्ट मे देरी होते रही। अंत मे 7 मार्च 2009 को केप केनावेरल अंतरिक्ष केंद्र फ़्लोरीडा से डेल्टा III राकेट से इसे अंतरिक्ष मे प्रक्षेपित कर दिया गया।

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

7 अप्रैल 2009 को इस अंतरिक्ष दूरबीन का ढक्कन हटाया गया और 8 अप्रैल को इसने प्रथम चित्र लिये। इस अंतरिक्ष वेधशाला ने सौर मंडल के बाहर अन्य तारो के पास पृथ्वी सदृश ग्रहों को खोजने का अपना अभियान 13 मई 2009 को प्रारंभ किया।
सौर मंडल बाह्य ग्रहो की खोज मे केप्लर ने सबसे पहले आंकड़े 19 जुन 2009 को भेजे।

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला ने ग्रहों की खोज आकाश मे एक स्थिर क्षेत्र मे ही की है। साथ मे दिये गये चित्र मे इस क्षेत्र के खगोलीय निर्देशांक दिये है। केप्लर आकाश मे 115 वर्ग डीग्री के क्षेत्र मे ग्रहो की खोज मे लगा था, जो कि आकाश का केवल 0.25% है। समस्त आकाश के निरीक्षण के लिये हमे 400 केप्लर दूरबीन चाहीये होंगी। केप्लर दूरबीन के खोज वाले क्षेत्र मे हंस(सिग्नस), विणा(लायरा) और शिशुमार( ड्रेको) तारामंडलो का कुछ भाग का भी समावेश है।

केप्लर अभियान के लक्ष्य

केप्लर अभियान का वैज्ञानिक उद्देश्य ग्रहीय प्रणालीयो की संरचना और विविधता का अध्ययन था। यह वेधशाला विभिन्न तारों का निरीक्षण निम्नलिखित लक्ष्यो को ध्यान मे रख कर कर रही थी।

  1. विभिन्न वर्णक्रम वाले तारो के जीवनयोग्य क्षेत्र मे (गोल्डीलाक ज़ोन) मे या निकट मे पृथ्वी के आकार के और बड़े ग्रहों की संख्या का निर्धारण
  2. इन ग्रहो के आकार और कक्षा की प्रकृति मे विविधता का अध्ययन
  3. एकाधिक तारा प्रणाली मे ग्रहों की संख्या का अनुमान लगाना
  4. कम कक्षीय अवधी वाले महाकाय ग्रहो की कक्षा के आकार, दीप्ति, आकार , द्रव्यमान तथा घनत्व का अध्ययन
  5. हर खोजी गई ग्रहीय प्रणाली के अन्य सदस्यो की खोज
  6. जीवन योग्य ग्रहो के तारो के गुणधर्मो का अध्ययन

 

केप्लर अभियान से पहले अन्य सभी अभियानो मे पाये गये अधिकतर ग्रह बृहस्पति सदृश महाकाय ग्रह थे। केप्लर को इस तरह से बनाया गया था कि वह बृहस्पति से 30 से 600 गुणा कम द्रव्यमान वाले पृथ्वी के जैसे द्रव्यमान के ग्रह की खोज कर। बृहस्पति पृथ्वी से 318 गुणा अधिक द्रव्यमान रखता है।

केप्लर वेधशाला ग्रहों की खोज के लिये संक्रमण विधि का प्रयोग करती है।

संक्रमण विधि(Transit Photometry)

ग्रहो की खोज की संक्रमण विधी

ग्रहो की खोज की संक्रमण विधी

जब कोई अपने मातृ तारे के सामने से गुजरता है तो वह अपने मातृ तारे के प्रकाश को किंचित रूप से मंद करता है। तारे तथा पृथ्वी के मध्य से ग्रह के गुजरने को संक्रमण(Transit) कहा जाता है। तारे के प्रकाश मे यदि एक नियत अंतराल पर कमी आती है तो यह किसी ग्रह के द्वारा नियत अंतराल पर तारे के सामने से गुजरने का संकेत होता है। प्रकाश मे आने वाली कमी की मात्रा से ग्रह के आकार का भी पता लगाया जा सकता है, एक छोटा ग्रह तारे के प्रकाश मे किसी बड़े ग्रह की तुलना मे अपेक्षाकृत रूप से कम मंदी लाता है।

गुण

किसी सौर बाह्य ग्रह की खोज की सबसे संवेदनशील विधि; विशेषत: केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला जैसे उपकरणो के लिये यह सर्वोत्तम विधि है। इस वेधशाला ने अबतक इस विधि से हजारो सौर बाह्य ग्रह खोजे है। इस विधि के द्वारा सौर बाह्य ग्रह के वातावरण मे विभिन्न गैसो की उपस्थिति और मात्रा को भी ज्ञात किया जा सकता है। सैकड़ो प्रकाशवर्ष की दूरी पर तारों के ग्रहों की खोज के लिये बेहतरीन विधि है।

कठिनाईयाँ

इस विधि से ग्रह की खोज मे निरीक्षण काल मे संक्रमण होना चाहिये। दो संक्रमणो के मध्य अंतराल उस ग्रह के अपनी कक्षा मे परिक्रमा काल के अनुसार महिनो से लेकर वर्षो तक हो सकता है तथा संक्रमण कुछ घंटो से लेकर कुछ दिनो तक का हो सकता है। इस विधि मे खगोल वैज्ञानिको को एक नही, एकाधिक संक्रमण का एक नियमित अंतराल मे निरीक्षण करना होता है।

ग्रहों की खोज प्रक्रिया

केप्लर वेधशाला तथा पृथ्वी पर आंकड़ो के विश्लेषण करने वाली टीम ग्रहों की खोज और पुष्टी के लिये एक जटिल बहुचरणीय प्रक्रिया का प्रयोग करती है। इस प्रक्रिया मे दो चरण होते है।

1 ग्रह के उम्मीदवारो की खोज

इस चरण मे केप्लर द्वारा भेजे गये आंकड़ो का विभिन्न साफ़्टवेयरो द्वारा विश्लेषण होता है। इस विश्लेषण मे ग्रह द्वारा तारे के प्रकाश मे नियमित अंतराल मे संक्रमण के द्वारा कमी को देखा जाता है। इस प्रक्रिया मे विभिन्न जांचो द्वारा सफ़ल होने वाली घटनाओ को केप्लर अभिरुची पिंड(Keplar Object of Interest) कहा जाता है। इसके बाद इन उम्मीदवारो को एक विशिष्ट प्रक्रिया विस्थापन(Dispositioning) गुजारा जाता है। इस जांच मे सफ़ल उम्मीद्वारों को केप्लर ग्रह उम्मीदवार कहा जाता है।

2 ग्रह उम्मीदवार की पुष्टि

इन केप्लर ग्रह उम्मीदवारो का पुन: निरीक्षण किया जाता है। इस पुन: निरीक्षण के आंकड़ो के विश्लेषण से ग्रह होने की पुष्टि होती है।

किसी अन्य विधि द्वारा ग्रह होने की पुष्टि

कुछ विशिष्ट ग्रह उम्मीदवारों के लिये ग्रह खोजने की अन्य तकनीको जैसे कोणिय गति(Radial Velocity), गुरुत्विय माइक्रोलेंसींग(Gravitational Microlensing), आस्ट्रोमेटरी(Astrometry)या कक्षीय दीप्ति(Orbital Brightness) के प्रयोग से ग्रह होने की पुष्टि की जाती है।

आंकड़ो की जांच
यदि ग्रह उम्मीदवार की किसी अन्य विधि से पुष्टि संभव नही होती है तो केप्लर के द्वारा प्राप्त आंकड़ो की पुनः जांच की जाती है कि जिससे गलती की किसी संभावना को दूर किया जा सके।

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला का डिजाईन

केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला का द्रव्यमान 1,039 किग्रा है और इसमे एक स्कमिट कैमरा(Schmidt Camera)लगा हुआ है। इस कैमरे मे 0.95 मिटर का लेंस तथा 1.4 मिटर व्यास का प्राथमिक दर्पण है।

कैमरा

इस कैमरे का फ़ोकल प्रतल 50 × 25 mm (2 × 1 in) CCD के 42 टुकड़ो से बना है, हर टूकड़ा 2200 x 1024 पिक्सेल का है जोकि इस कैमरे को 94.6 मेगापिक्सेल का बनाता है। इस फ़ोकस प्रतल के शीतलन के लिये बाह्य रेडीयेटर से जुड़े उष्मा पाइप लगे हुये है। इन CCD के आंकड़ो को हर 6.5 सेकंड मे पढ़ा जाता है और कम चमक वाले तारों के लिये निरिक्षण को 58,89 सेकंड तक जारी रखा जाता है जबकि अधिक चमक वाले तारों के लिये इसे 1765.5 सेकंड तक निरीक्षण किया जाता है। इसके पश्चात इन आंकड़ो को संकुचित(compress) कर यान मे 16 GB के सोलिड स्टेट रिकार्डर मे रखा जाता है। इस रिकार्डर से आंकड़ो को पृथ्वी पर भेजा जाता है।

मुख्य दर्पण

केप्लर का प्राथमिक दर्पन 1.4 मीटर व्यास का है और उसे विख्यात कांच के निर्माता कार्निंग(Corning) ने अत्यंत कम विस्तार होने वाले कांच( ultra-low expansion (ULE) glass)से बनाया है। इस दर्पण का द्रव्यमान साधारण कांच से बने समान आकार के दर्पण की तुलना मे केवल 14% ही है।

कक्षा और दिशा

केप्लर की कक्षा नीला-पृथ्वी, गुलाबी -केप्लर, पीला-सूर्य

केप्लर सूर्य की परिक्रमा करता है जो कि पृथ्वी की कक्षा के उपग्रहो पर पड़्ने वाले प्रभाव जैसे किसी भी तरह के ग्रहण, आवारा प्रकाश तथा गुरुत्विय प्रभाव से मुक्त है। नासा के अनुसार केप्लर की कक्षा पृथ्वी से पिछड़ती कक्षा है। केप्लर सूर्य की परिक्रमा 372.5 दिन मे करता है, हर वर्ष केप्लर पृथ्वी से दूर होते जा रहा है। मई 2018 मे केप्लर की पृथ्वी से दूरी 0.917 AU(13.7 करोड़ किमी) थी।

इस वेधशाला की दिशा ऐसी है कि इसमे कभी भी सूर्यप्रकाश का प्रवेश नही होता है। यह हंस(सिग्नस), विणा(लायरा) और शिशुमार( ड्रेको) तारामंडल की ओर निरीक्षण कर रहा है। यह दिशा सौर मंडल के आकाशगंगा केंद्र की परिक्रमा की दिशा भी है तथा आकाशगंगा के प्रतल मे ही है। केप्लर द्वारा निरीक्षित तारो की आकाशगंगा के तारो की दूरी भी सौरमंडल और आकाशगंगा के केंद्र की दूरी के समान ही है।

संचालन

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

केप्लर द्वारा निरीक्षण किया जानेवाला क्षेत्र

केप्लर वेधशाला का संचालन लेबोरेटरी फ़ार एटमासफ़ियर और स्पेस फ़िजिक्स(Laboratory for Atmospheric and Space Physics (LASP)) द्वारा बोल्डर, कोलोरोडो (Boulder, Colorado)से किया जा रहा है। यान के नियत्रण और संचालन के लिये संचार X बैंड पर किया आता है, यह सप्ताह मे दो बार होता है। यान से निरीक्षण के आंकड़े महिने मे एक बार Ka बैंड से 55kB/s की दर से होता है। केप्लर अंतरिक्ष यान आंकड़ो का आंशिक विश्लेषण यान मे ही कर लेता है बैंडविड्थ बचाने के लिये संसाधित आंकड़े ही पृथ्वी पर भेजता है।

केप्लर द्वारा की गई महत्वपूर्ण खोजें

केप्लर वेधशाला 2009 से 2018 तक 9.6 साल अंतरिक्ष में सक्रीय रही। इसने 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई है। इस अंतरिक्ष वेधशाला से सबसे पहले परिणाम 4 जनवरी 2010 को घोषित किये गये थे।

2009

6 अगस्त 2009 को नासा की प्रेस कांफ़्रेंस मे पहले से खोजे गये ग्रह HAT-P-7b की केप्लर अंतरिक्ष वेधशाला के आंकड़ो से पुष्टि की घोषणा की गई। इसमे यह भी घोषणा हुई कि केप्लर पृथ्वी सदृश ग्रहो की खोज संभव है।
इस वेधशाला से प्राप्त पहले छः सप्ताह के आंकड़ो से तारे के अत्यंत समीप परिक्रमा करने वाले पांच नये ग्रहों की खोज हुई, इसमे सबसे महत्वपूर्ण यह था कि खोजे गये नये ग्रहों मे एक अधिक घनत्व था। अन्य महत्वपूर्ण खोजो मे दो कम द्रव्यमान के श्वेत वामन तारे तथा एक नया ग्रह केप्लर 16b है जो युग्म तारों की परिक्रमा कर रहा है।

2010

4 जुन 2010 को 15,600 लक्षित तारो मे से 400 तारो को छोड सभी के निरीक्षण के आंकड़े सार्वजनिक किये गये। इनमे से 706 तारों के पास पृथ्वी से लेकर बृहस्पति तक के आकार के ग्रहों की उपस्थिति के प्रमाण थे। इन 706 तारों मे से 306 तारों की पहचान सार्वजनिक की गई थी। इनमे से पांच तारों के पास एकाधिक ग्रह थे। यह आंकड़े केवल 33.5 दिनो के निरीक्षण के थे। नासा ने 400 तारो के निरीक्षण के आंकड़ो को पूर्ण विश्लेषण ना हो पाने के कारण रोक रखा था।
2010 मे प्रकाशित आंकड़ो से पता चला कि अधिकतर ग्रह उम्मीदवार का व्यास बृहस्पति से आधा है। इन परिणामो से यह भी पता चला कि छोटे उम्मीदवार ग्रहो की परिक्रमा अवधि 30 दिन से कम होना बड़े ग्रह की परिक्रमा अवधि के 30 दिनो से कम होने से भी अधिक सामान्य है।

केप्लर से प्राप्त आंकड़ो से अनुमान लगाया गया कि हमारी आकाशगंगा मे कम से कम 10 करोड़ ग्रह जीवन के लिये अनुकुल परिस्थिति लिये हुए होंगे।

2011

2 फ़रवरी 2011 को केप्लर टीम ने 2 मई और 16 सितंबर 2009 के मध्य प्राप्त आंकड़ो के विश्लेषण से प्राप्त परिणामो को प्रकाशित किया। उन्होने 997 मातृ तारों की परिक्रमा करते 1235 ग्रहों की खोज की घोषणा की। इनमे से 68 पृथ्वी तुल्य आकार के, 288 महापृथ्वी आकार, 662 नेपच्युन आकार, 165 बृहस्पति के आकार तथा 19 बृहस्पति से दोगुने आकार के ग्रह थे। इससे पहले के प्राप्त आंकड़ो के विपरीत 74% से अधिक ग्रह नेपच्युन से छोटे पाये गये।

यह भी पाया गया कि 1235 मे से 54 ग्रह अपने मातृ तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे परिक्रमा कर रहे थे जिसमे से 5 पृथ्वी के दोगुने आकार से छोटे ग्रह थे। इससे पहले केवल दो ग्रह जीवनयोग्य क्षेत्र मे पाये गये थे। यह एक उत्साह वर्धक खोज थी।

5 दिसंबर 2011 तक केप्लर टीम ने बताया कि उन्होने 2,326 ग्रह उम्मीदवार खोजे है, जिसमे 207 पृथ्वी सदृश, 680 महापृथ्वी आकार, 1181 नेपच्युन आकार के, 203 बृहस्पति आकार के तथा 55 ग्रह बृहस्पति से बड़े पाये गये।

20 दिसंबर 2011 को केप्लर टीम ने पहले पृथ्वी के आकार के ग्रह केप्लर 20e तथा 20f पाए जाने की घोषणा की जोकि सूर्य के जैसे तारे केप्लर 20 की परिक्रमा कर रहे है।

केप्लर से प्राप्त इन आंकड़ो से उत्साहित होकर सेठ शोस्टक ने अनुमान लगाया कि पृथ्वी से हजार प्रकाशवर्ष दूरी के अंदर ही कम से कम 30,000 जीवन योग्य ग्रह होंगे।

2012

जनवरी 2012 मे खगोल वैज्ञानिको ने अनुमान लगाया कि हमारी आकाशगंगा मंदाकिनी मे औसत रूप से प्रतितारा 1,6 ग्रह है जिसके अनुसार हमारी आकाशगंगा मे कम से कम 160 अरब ग्रह होना चाहिये।

वर्ष के अंत तक कुल 2,321 ग्रह के उम्मीदवार थे जिनमे 207 पृथ्वी सदृश, 680 महापृथ्वी आकार, 1181 नेपच्युन आकार के, 203 बृहस्पति आकार के तथा 55 ग्रह बृहस्पति से बड़े पाये गये। इनमे से 48 ग्रह जीवन योग्य क्षेत्र मे थे।

2013

जनवरी 2013 मे काल्टेक के खगोलशास्त्रीयों ने अनुमान लगाया कि हमारी आकाशगंगा मे 100-400 अरब ग्रह होना चाहीये, यह अनुमान केप्लर 32 तारे के निरीक्षण के आधार पर था। 7 जनवरी को ही 461 नये ग्रह उम्मीदवारो की घोषणा हुई।

7 जनवरी को केप्लर 69c की घोषणा हुई जो कि सूर्य जैसे तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे परिक्रमा कर रहा है।

अप्रैल 2013 मे अपने मातृ तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे तीन पृथ्वी के आकार के ग्रहो केप्लर62e केप्लर62f तथा केप्लर69c की खोज की घोषणा हुई जो अपने क्रमश: केप्लर62 तथा केप्लर69 की परिक्रमा कर रहे है। इन ग्रहों मे द्रव जल की उपस्थिति की संभावना अधिक है।

2013 मे पता चला कि केप्लर के तीन रीएक्शन व्हील मे से दूसरा रीएक्शन व्हील भी काम नही कर रहा है, एक व्हील ने पहले ही काम करना बंद कर दिया था। ये व्हील केप्लर को सही दिशा मे रखने का कार्य करते है। इससे नई खोज होने की संभावना पर आघात लगा लेकिन बाद मे वैज्ञानिको ने बताया कि वे क्षतिग्रस्त व्हील के बावजूद केप्लर का उपयोग कर पायेंगे।

2014

13 फ़रवरी को अतिरिक्त 503 ग्रह उम्मीदवारों की घोषणा हुई। इनमे से बहुत से पृथ्वी के आकार के और जीवनयोग्य क्षेत्र मे है। जुन 2014 मे इस आंकड़े मे 400 की वृद्धी हुई।

26 फ़रवरी को केप्लर टीम ने 715 ग्रहो की पुष्टी की। इसमे से चार ग्रह जिसमे केप्लर 296f का समावेश है पृथ्वी के ढाई गुणे से कम के आकार के है और जीवन योग्य क्षेत्र मे है। इन पर द्रव जल और जीवन की संभावना है।

17 अप्रैल को केप्लर टीम ने केप्लर186f की खोज की घोषणा की जो पृथ्वी के आकार का जीवन योग्य क्षेत्र मे पहला खोजा ग्रह था यह ग्रह एक लाल वामन तारे की कक्षा मे है।

2015

जनवरी 2015 मे पुष्टी हो चुके ग्रहों की संख्या 1000 पार हो गई। इनमे से कम से कम दो केप्लर438b तथा केप्लर 442b चट्टानी ग्रह है और जीवनयोग्य क्षेत्र मे है। इसी समय नासा ने घोषणा की कि पांच पुष्टि हो चुके ग्रह शुक्र ग्रह के आकार के है और 11.2 अरब वर्ष उम्र के तारे केप्लर 444 की परिक्रमा कर रहे है। यह इस तारा प्रणाली को ब्रह्माण्ड की आयु का 80% उम्र का बनाता है।

24 जुलाई को नासा ने केप्लर 452b ने पृथ्वी के आकार के ग्रह की पुष्टी जो सूर्य के जैसे तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे परिक्रमा कर रहा है।

14 2015 को खगोलशास्त्री ने एक विचित्र तारे KIC 8462852 के प्रकाश मे असामान्य प्रकाश मंदी की घोषणा की। इसके लिये कई परिकप्लनाये प्रस्तुत की गई है जिनमे धुमकेतुओं के झुंड, क्षुद्रग्रहो तथा विकसित एलियन सभ्यता का समावेश है।

2016

मई 10 तक केप्लर अभियान ने 1,284 नये ग्रहों की पुष्टि की है जिसमे आकार के आधार पर 550 ग्रह चट्टानी होना चाहीये, जिसमे से नौ अपने मातृ तारे के जीवन योग्य क्षेत्र मे है।

ये है केप्लर-560b, केप्लर-705b,केप्लर-1229b, केप्लर-1410b, केप्लर-1455b, केप्लर-1544b, केप्लर-1593b, केप्लर-1606b, केप्लर-1638b

अभियान का अंत

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का ग्रहों की खोज करने वाला केपलर अंतरिक्ष वेधशाला का अभियान समाप्त हो गया है। यह दूरबीन 9 साल की सेवा के बाद सेवा निवृत्त होने वाला है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि 2,600 ग्रहों की खोज में मदद करने वाले केपलर दूरबीन का ईंधन खत्म हो गया है इसलिए उसे रिटायर किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि 2009 में स्थापित इस दूरबीन ने हजारो छुपे हुए ग्रहों से हमें अवगत कराया और ब्रह्मांड की हमारी समझ को बेहतर बनाया।

नासा की ओर से जारी बयान के अनुसार, केपलर ने दिखाया कि रात में आकाश में दिखने वाले 20 से 50 प्रतिशत तारों के सौरमंडल में पृथ्वी के आकार के ग्रह हैं और वे अपने तारों के रहने योग्य क्षेत्र के भीतर स्थित हैं। इसका मतलब है कि वे अपने तारों से इतनी दूरी पर स्थित हैं, जहां इन ग्रहों पर जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पानी के होने की संभावना है।

नासा के एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज का कहना है कि केपलर का जाना कोई अनपेक्षित नहीं था। केपलर का ईंधन खत्म होने के संकेत करीब दो सप्ताह पहले ही मिले थे। उसका ईंधन पूरी तरह से खत्म होने से पहले ही वैज्ञानिक उसके पास मौजूद सारा डेटा एकत्र करने में सफल रहे। नासा का कहना है कि फिलहाल केपलर धरती से दूर सुरक्षित कक्षा में है। नासा केपलर के ट्विटर हैंडल से इसके बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए ट्वीट भी किया गया।

इसके मुताबिक यह वेधशाला 9.6 साल अंतरिक्ष में रही। 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई।



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Tuesday 30 October 2018

अलविदा केप्लर : 9 साल तक ग्रहों की खोज के बाद नासा की केपलर अंतरिक्ष वेधशाला का अभियान समाप्त

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का ग्रहों की खोज करने वाला केपलर अंतरिक्ष वेधशाला का अभियान समाप्त हो गया है। यह दूरबीन 9 साल की सेवा के बाद सेवा निवृत्त होने वाला है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि 2,600 ग्रहों की खोज में मदद करने वाले केपलर दूरबीन का ईंधन खत्म हो गया है इसलिए उसे रिटायर किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि 2009 में स्थापित इस दूरबीन ने हजारो छुपे हुए ग्रहों से हमें अवगत कराया और ब्रह्मांड की हमारी समझ को बेहतर बनाया।

नासा की ओर से जारी बयान के अनुसार, केपलर ने दिखाया कि रात में आकाश में दिखने वाले 20 से 50 प्रतिशत तारों के सौरमंडल में पृथ्वी के आकार के ग्रह हैं और वे अपने तारों के रहने योग्य क्षेत्र के भीतर स्थित हैं। इसका मतलब है कि वे अपने तारों से इतनी दूरी पर स्थित हैं, जहां इन ग्रहों पर जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पानी के होने की संभावना है।

नासा के एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज का कहना है कि केपलर का जाना कोई अनपेक्षित नहीं था। केपलर का ईंधन खत्म होने के संकेत करीब दो सप्ताह पहले ही मिले थे। उसका ईंधन पूरी तरह से खत्म होने से पहले ही वैज्ञानिक उसके पास मौजूद सारा डेटा एकत्र करने में सफल रहे। नासा का कहना है कि फिलहाल केपलर धरती से दूर सुरक्षित कक्षा में है। नासा केपलर के ट्विटर हैंडल से इसके बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए ट्वीट भी किया गया।

इसके मुताबिक यह वेधशाला 9.6 साल अंतरिक्ष में रही। 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई।



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Monday 29 October 2018

वह महान वैज्ञानिक जिसने भारत को बैलगाड़ी युग से निकालकर नाभिकीय युग मे पहुंचा दिया

भारत की स्वतंत्रता और उसके नए संविधान के लागू होने के साथ ही देश की प्रगति की नींव रखी गई। स्वतंत्रता के तुरंत बाद हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। नेहरू जी का यह यह मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का एक ही रास्ता है- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को विकास से जोड़ा जाए। नेहरू जी  ने मुख्यत: दो क्षेत्रों मे अपना ध्यान केन्द्रित किया – परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का विकास और इसके माध्यम से अंतरिक्ष विज्ञान का विकास और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अंतर्गत देश में एक के बाद एक कई वैज्ञानिक संस्थाओं और प्रयोगशालाओं की स्थापना। भारत मे नाभिकीय ऊर्जा के व्यवहार्य और दूरदर्शी कार्यक्रम की स्थापना होमी जहाँगीर भाभा और नेहरू जी के संयुक्त दृष्टिकोणों के परिणामस्वरूप हुई। आइए, भारत को नाभिकीय युग मे प्रवेश दिलाने मे भाभा की भूमिका के बारे मे चर्चा करते हैं।

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भाभा के साथ पं. नेहरू

होमी भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुंबई मे एक सम्पन्न पारसी परिवार मे हुआ था। स्कूली शिक्षा मे शानदार अकादमिक प्रदर्शन के बाद भाभा ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय मे प्रवेश लिया। भौतिकी मे उनकी व्यापक दिलचस्पी थी, इसलिए उन्होने नाभिकीय भौतिकी को अपना अनुसंधान क्षेत्र चुना। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद वहीं उन्हें प्राध्यापक के रूप मे नियुक्ति मिली। भाभा ने भौतिकी के चोटी के वैज्ञानिकों, रदरफोर्ड, डिराक, चैडविक, बोर, आइंस्टाइन, पौली आदि के साथ कार्य किया। भाभा का शोधकार्य मुख्यत:  कॉस्मिक किरणों पर केंद्रित था। कॉस्मिक किरणें अत्यधिक ऊर्जा वाले वे कण होते हैं जो बाहरी अंतरिक्ष मे पैदा होते हैं और छिटक कर पृथ्वी पर आ जाते हैं। भाभा ने वर्ष 1937 मे वाल्टर हाइटलर के साथ मिलकर कॉस्मिक किरणों पर एक सैद्धांतिक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। उनके कॉस्मिक किरणों पर किये गए शोध कार्य को वैश्विक स्तर पर व्यापक मान्यता प्राप्त हुई। तब तक भाभा एक प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी बन चुके थे।

द्वितीय विश्व युद्ध की भारत को देन

यह एक संयोग ही कहा जा सकता है कि वर्ष 1939 मे भाभा कैंब्रिज से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर भारत आए। और इसी बीच यूरोप मे अचानक द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। इसलिए उन्होने विश्व युद्ध के ख़त्म होने तक भारत मे ही रहने का निर्णय किया। और उन्होने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स, बैंगलोर मे चंद्रशेखर वेंकट रामन के आमंत्रण पर रीडर के पद पर नियुक्ति प्राप्त की। इससे भाभा के जीवन में एक बड़ा मोड़ा तो आया ही साथ मे भारत के वैज्ञानिक विकास को भी एक नई दिशा मिली।

प्रारम्भ मे भाभा का अनुसंधान कार्य कॉस्मिक किरणों पर ही केंद्रित था, मगर नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र मे विकास को देखते हुए भाभा को यह विश्वास हो गया कि इस क्षेत्र के अनुसन्धानों से भारत निकट भविष्य में लाभ उठा सकेगा। वर्ष 1944 में भाभा ने टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष दोराब जी टाटा को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान हेतु एक संस्थान के निर्माण का प्रस्ताव रखा तथा नाभिकीय विद्युत की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। टाटा ट्रस्ट के अनुदान से वर्ष 1945 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामैंटल रिसर्च (टीआईएफ़आर) की डॉ. होमी भाभा के नेतृत्व में स्थापना हुई। टीआईएफ़आर ने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को संगठित करने के लिए आधारभूत ढांचा उपलब्ध करवाया।

दो महान विभूतियों के बीच अद्भुत बौद्धिक संबंध

भारत मे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम संबंधी वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का श्रेय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और होमी भाभा की दूरदर्शिता को जाता है। भाभा की प्रतिभा के नेहरू जी कायल थे तथा दोनों के बीच काफी मधुर संबंध थे। वर्ष 1948 में भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई। यह भाभा की दूरदृष्टि ही थी कि नाभिकीय विखंडन की खोज के बाद जब सारी दुनिया नाभिकीय ऊर्जा के विध्वंसनात्मक रूप परमाणु बम के निर्माण मे लगी हुई थी तब भाभा ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए विद्युत उत्पादन के लिए परमाणु शक्ति के उपयोग की पहल की। भाभा के नेतृत्व में भारत में प्राथमिक रूप से विद्युत शक्ति पैदा करने तथा कृषि, उद्योग, चिकित्सा, खाद्य उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए नाभिकीय अनुप्रयोगों के विकास की रूपरेखा तैयार की गई। इस दौरान भाभा को नेहरू जी की निरंतर सहायता और प्रोत्साहन मिलती रही, जिससे भारत दुनिया भर के उन मुट्ठी भर देशों में शामिल हो सका जिनको सम्पूर्ण नाभिकीय चक्र पर स्वदेशी क्षमता हासिल था।homi-bhabha-1

त्रिस्तरीय नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम

डॉ. भाभा ने देश में उपलब्ध यूरेनियम और थोरियम के विपुल भंडारों को देखते हुए परमाणु विद्युत उत्पादन की तीन स्तरीय योजना बनाई थी, जिसमें क्रमश: यूरेनियम आधारित नाभिकीय रिएक्टर स्थापित करना, प्लूटोनियम को ईंधन के रूप मे उपयोग करना तथा थोरियम चक्र पर आधारित रिएक्टरों की स्थापना करना शामिल था। इस त्रिस्तरीय योजना का दो हिस्सा भारत पूरा कर चुका है। इस प्रकार भाभा ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में भारत को स्वावलंबी बनाकर उन लोगों के दाँतो तले ऊंगली दबा दिया जो परमाणु ऊर्जा के विध्वंसनात्मक उपयोग के पक्षधर थे।

परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर

परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग से संबंधित भाभा का विजन सम्पूर्ण मानवता के लिए युगांतरकारी सिद्ध हुआ। उन्होने यह बता दिया कि परमाणु का उपयोग सार्वभौमिक हित और कल्याण के लिए करते हैं, तो इसमें असीम संभावनाएं छिपी हुई है। वर्ष 1955 में भारत के प्रथम नाभिकीय रिएक्टर ‘अप्सरा’ की स्थापना परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की दिशा में पहला सफल कदम था। इसके बाद भाभा के नेतृत्व में साइरस, जरलीना आदि रिएक्टर अस्तित्व में आए। हालांकि डॉ. भाभा शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग के पक्षधर रहे, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध मे भारत की हार ने उन्हें अपनी सोच बदलने को विवश कर दिया। इसके बाद वे कहने लगे कि ‘शक्ति का न होना हमारे लिए सबसे महंगी बात है’। अक्तूबर 1965 में डॉ. भाभा ने ऑल इंडिया रेडियों से घोषणा कि अगर उन्हें मौका मिले तो भारत 18 महीनों में परमाणु बम बनाकर दिखा सकता है। उनके इस वक्तव्य ने सारी दुनिया में सनसनी पैदा कर दी। हालांकि इसके बाद भी वे विकास कार्यों में परमाणु ऊर्जा के उपयोग की वकालत करते रहे तथा ‘शक्ति संतुलन’ हेतु भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न बनना आवश्यक बताया।

विमान दुर्घटना और असामयिक मृत्यु

24 जनवरी, 1966 को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग की बैठक मे भाग लेने के लिए विएना जाते हुए एक विमान दुर्घटना में मात्र 57 वर्ष की आयु में डॉ. भाभा का निधन हो गया। इस प्रकार भारत ने एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक, प्रशासक और कला एवं संगीत प्रेमी को खो दिया। डॉ. भाभा द्वारा प्रायोजित भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम आज भी देश के बहुआयामी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा रहा है।

-प्रदीप   (pk110043@gmail.com) 

 

 

 

 

 



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Sunday 7 October 2018

वायेजर 2 ने रचा इतिहास: सौर मंडल के बाहर द्वितिय मानव निर्मित यान

वायेजर 2 से प्राप्त संकेत बता रहे हैं कि नासा का यह अंतरिक्ष यान सौर मंडल की सीमा पर है। वह सौर मंडल के विशाल बुलबुले के अंतिम छोर पर पहुंच चुका है;जिसे हेलिओस्फीयर कहते है। वायेजर 2 जल्दी ही हमारे सौर मंडल से बाहर चला जायेगा

वायेजर 2 और उसके जुड़वां यान वायेजर 1 को 1977 मे प्रक्षेपित किया गया था। 2012 मे वायेजर 1 सौर मंडल की इस सीमा को पार कर चुका है।

वायेजर 2 ने अपने आसपास कास्मिक किरणो की उपस्थिति मे बढ़ोत्तरी देखी है, ये कास्मिक किरणे सौर मंडल के बाहर अंतरतारकीय(interstellar) माध्यम मे पाई जाती है। नासा के अनुसार यह संकेत है कि 41 वर्ष पहले प्रक्षेपित अंतरिक्ष यान वायेजर 2 अब सौर मंडल के बाहर जाने के लिये तैयार है।

सौर मंडल के बाहर जाने के बाद वायेजर 1 के बाद यह दूसरी मानव निर्मित वस्तु होगी जो सौर मंडल की सीमाओ को पार कर चुकी होगी। वायेजर 1 ने इसी तरह की स्थिति का सामना 2012 मे किया था जब उसने कास्मिक किरणो मे इसी तरह की बढोत्तरी देखी थी। वर्तमान मे वायेजर 2 पृथ्वी से 2.8 अरब किमी दूरी पर है।

वायेजर 1 पृथ्वी से 5 सितंबर 1977 को अपने साथी यान वायेजर 2(20 अगस्त 1977) से कुछ दिनो बाद अपनी इस अंतहीन यात्रा पर रवाना हुआ था। इस यान का प्राथमिक उद्देश्य गुरु, शनि, युरेनस और नेपच्युन का अध्यन था जो उसने 1989 मे ही पूरा कर लिया था। उसके पश्चात उसने गहन अंतरिक्ष मे छलांग लगाई थी।

1977 मे जब इन दोनो वायेजर को छोड़ा गया था तब उनका उद्देश्य बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चयुन की यात्रा मात्र था। उस समय मानव के पास कुल 20 वर्ष अंतरिक्ष अनुभव था, कोई उम्मीद नहीं थी कि यह अभियान 40 वर्ष से अधिक तक चलेगा, वह भी अपने मूल अभियान को पूरा करने के पश्चात। लेकिन इस अभियान के अभियंताओ को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, उन्होंने इसे आवश्यकता से अधिक ही बनाया था।

वायेजर यानो का पथ

वायेजर यानो का पथ

परिभाषायें

  • सौर वायु (Solar Wind): सूर्य की सतह से उत्सर्जित आवेशीत कणो की धारा
  • हेलिओस्फीयर(Heliosphere): समस्त सौर मंडल को समाहित करने वाला सौर वायु से निर्मित बुलबुला।
  • टर्मीनेशन शाक (Termination Shock): वह क्षेत्र जहाँ पर सूर्य द्वारा उत्सर्जित कणों की गति धीमी पडने लगती और अंतरिक्ष के कणो से टकराव प्रारंभ होता है।
  • हीलीयोसीथ(Heliosheth) : वह क्षेत्र जहाँ पर सौर वायु खगोलीय पदार्थ से टकराकर एक तुफान जैसी स्थिती उत्पन्न करती है।
  • हीलीयोपाज(Heliopause) : सौर वायु और खगोलीय माध्यम के मध्य की सीमा जहाँ पर दोनो पदार्थो का दबाव समान होता है।

संबधित पोष्ट

 



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Wednesday 3 October 2018

2018 रसायन नोबेल पुरस्कार :फ्रांसेस अर्नोल्ड, जार्ज स्मिथ और ग्रेगरी विंटर

2018 के रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार तीन रसायन शास्त्रियों फ्रांसेस अर्नोल्ड (Frances H Arnold), जार्ज स्मिथ (George P Smith) और ब्रिटिश अनुसंधानकर्ता ग्रेगरी विंटर (Gregory P Winter) को दिया जा रहा है। विजेताओं में एक महिला और दो पुरुष वैज्ञानिक हैं। रॉयल स्वीडिश अकैडमी ऑफ साइंसेज ने कहा कि इस साल जिन तीन हस्तियों को रासायन के क्षेत्र में नोबेल प्राइज के लिए चुना गया है उन्होंने एंजाइम्स और ऐंटीबॉडीज को विकसित करने के लिए क्रमिक विकास की शक्ति का इस्तेमाल किया है। जिससे नए फार्मास्युटिकल और जैव इंधन(बायोफ्युल) का निर्माण हुआ है।

 फ्रांसेस अर्नोल्ड (Frances H Arnold), जार्ज स्मिथ (George P Smith) और ब्रिटिश अनुसंधानकर्ता ग्रेगरी विंटर (Gregory P Winter)

फ्रांसेस अर्नोल्ड (Frances H Arnold), जार्ज स्मिथ (George P Smith) और ब्रिटिश अनुसंधानकर्ता ग्रेगरी विंटर (Gregory P Winter)

कैलिफॉर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी की फ्रांसिस एच ऑर्नल्ड को एंजाइम्स के पहले निर्देशित विकास के लिए प्राइज का आधा हिस्सा दिया गया है। उनके इस प्रयास से और अधिक पर्यावरण अनुकूल रसायनों का निर्माण हुआ है जिनमें ड्रग्स और नवीनीकृत ईंधन शामिल हैं।

वहीं, यूनिवर्सिटी और मिसूरी के जॉर्ज स्मिथ और कैम्ब्रिज स्थित एमआरसी लैबरेटरी एवं मॉलिक्यूलर बायॉलजी के सर ग्रेगॅरी पी विंटर को प्राइज का बाकी का हिस्सा दिया गया है। स्मिथ ने प्रोटीन के विकास के नए तरीके का ईजाद किया है, जबकि विंटर ने नई दवाइयों के उत्पादन को ध्यान में रखते हुए ऐंटीबॉडीज के विकास के सिद्धांत का इस्तेमाल किया।

चयन मंडल ने कहा कि क्रमविकास के सिद्धांतों का उपयोग कर जैव ईंधन से ले कर औषधि तक, हर चीज बनाने में इस्तेमाल होने वाले एंजाइम का विकास करने के सिलसिले में तीनों वैज्ञानिकों को रसायन विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। अर्नोल्ड रसायन विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल (Nobel Prize 2018) जीतने वाली पांचवीं महिला हैं। उन्होंने पुरस्कार राशि 90 लाख स्वीडिश क्रोनोर (करीब 10.1 लाख डॉलर या 870,000 यूरो) की आधी रकम जीत ली। शेष आधी रकम स्मिथ और विंटर के बीच बंटेगी।

स्वीडिश रॉयल एकेडमी ऑफ साइंस ने कहा रसायन विज्ञान के क्षेत्र में 2018 का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize 2018) क्रम विकास के इस्तेमाल को लेकर है जिससे मानवता को बड़ा फायदा पहुंचाने का लक्ष्य है। तीनों वैज्ञानिकों ने विभिन्न क्षेत्रों में प्रोटीन के इस्तेमाल के लिए क्रम विकास के उसी सिद्धांत का इस्तेमाल किया जिसके जरिए आनुवंशिक बदलाव और चयन किया जाता है।

एकेडमी की नोबेल कैमेस्ट्री कमेटी के प्रमुख क्लेस गुस्तफसन ने संवाददाताओं से कहा कि 2018 के नोबेल विजेताओं ने डार्विन के सिद्धांत को परखनली में उतारा। उन्होंने आन्विक स्तर पर क्रमविकास की प्रक्रियाओं की समझ का उपयोग किया और अपनी प्रयोगशाला में उसे मूर्त रूप दिया। उन्होंने कहा कि इसके तहत क्रम विकास की गति हजारों गुणा तेज की गई और इसे नयी प्रोटीन के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया।

अर्नोल्ड कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी में प्रोफेसर हैं। उनके कार्यों ने जीवाश्म ईंधन जैसे जहरीले रसायनों की समस्या से निपटना भी मुमकिन किया है। वांछित गुणों के साथ नये प्रोटीनों के निर्माण की उनकी पद्धति का इस्तेमाल गन्ना को जैव ईंधन जैसे नवीकरणीय संसाधनों में बदलने और पर्यावरण अनुकूल रसायनिक पदार्थ बनाने में किया गया। इस तरह कम तापमान में कपड़ा धोने और बरतन धोने के डिटरजेंट जैसे रोजमर्रा के उत्पादों को बेहतर बनाया गया।

चयन मंडल ने कहा कि यूनिवर्सिटी ऑफ मिसूरी के स्मिथ और कैंब्रिज में एमआरसी लेबोरेटरी ऑफ मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी के विंटर ने ‘फेज डिसप्ले’ नामक अनूठा तरीका विकसित किया। इसके जरिए बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले वायरस- बैक्टेरियोफेज का इस्तेमाल नये प्रोटीन के इस्तेमाल हो सकता है। उनके अध्ययन से अर्थराइटिस, सोराइसिस और आंत की सूजन जैसी बीमारी के लिए औषधि के साथ ही विषाक्त पदार्थों की काट के लिए एंटी बॉडीज (प्रतिरोधक) तथा कैंसर के इलाज में भी फायदा होगा।



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Tuesday 2 October 2018

2018 भौतिकी नोबेल पुरस्कार : आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) के साथ गेराड मौरौ (Gérard Mourou)तथा डोना स्ट्रिकलैंड(Donna Strickland)

2018 का भौतिकी नोबेल आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) के साथ गेराड मौरौ (Gérard Mourou)तथा डोना स्ट्रिकलैंड(Donna Strickland) दिया गया है।

आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin), गेराड मौरौ (Gérard Mourou)तथा डोना स्ट्रिकलैंड(Donna Strickland)

रायल स्विडीश अकादमी के अनुसार 2018 के भौतिकी नोबेल पुरस्कार लेजर भौतिकी के क्षेत्र मे क्रांतिकारी कार्य के लिये दिया गया है। इस पुरस्कार की आधी राशी आर्थर एश्किन को आप्टीकल ट्वीजर और उनके जैविक प्रणालीयों पर प्रभाव के लिये चुना गया है।

शेष राशी संयुक्त रूप से गेराड मौरौ तथा डोना स्ट्रिकलैंड को अत्याधिक ऊजा वाली अत्यंत सूक्ष्म लेजर पल्स उत्पन्न करने की विधि के लिये दिया गया है।

आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) की खोज ने विज्ञान फतांशी को जमीन पर उतारा है। आप्टीकल ट्वीजरस(Optical Tweezers) के प्रयोग से प्रकाश के प्रयोग से पदार्थ का निरिक्षण, मोड़ना, काटना, धकेलना और खींचना संभव है। बहुत सी प्रयोगशालाओं मे आप्टीकल ट्वीजरस(Optical Tweezers) के प्रयोग से जैविक प्रक्रियाओं का अध्य्यन किया जाता है जिसमे प्रोटीन, आण्विक मोटर, डी एन ए तथा कोशिकाओं की आंतरिक कार्यप्रणाली का समावेश है।

एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर कणो, परमाणुओ अणुओं को लेजर बीम के द्वारा पकड़ते है। वे वायरस , बैक्टेरीया और अन्य जीवित कोशीकाओं का अध्ययन और उनमे परिवर्तन करते है, इस प्रक्रिया मे जीवित कोशीकाओं को कोई हानि नही होती है। इसके द्वारा जैविक मशीन के निरिक्षण और नियंत्रण के नये अवसर उत्पन्न हुये है।

एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर कणो, परमाणुओ अणुओं को लेजर बीम के द्वारा पकड़ते है। वे वायरस , बैक्टेरीया और अन्य जीवित कोशीकाओं का अध्ययन और उनमे परिवर्तन करते है, इस प्रक्रिया मे जीवित कोशीकाओं को कोई हानि नही होती है। इसके द्वारा जैविक मशीन के निरिक्षण और नियंत्रण के नये अवसर उत्पन्न हुये है।

एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर कणो, परमाणुओ अणुओं को लेजर बीम के द्वारा पकड़ते है। वे वायरस , बैक्टेरीया और अन्य जीवित कोशीकाओं का अध्ययन और उनमे परिवर्तन करते है, इस प्रक्रिया मे जीवित कोशीकाओं को कोई हानि नही होती है। इसके द्वारा जैविक मशीन के निरिक्षण और नियंत्रण के नये अवसर उत्पन्न हुये है।

आप्टीकल ट्वीजर्स का निर्माण

आप्टीकल ट्वीजर्स का निर्माण

डोना स्ट्रिकलैंड भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जीतने वाली तीसरी महिला है। इसके पहले यह पुरस्कार 1903 मे मेरी क्युरी को तथा 1963 मे मारीया गोएप्पेर्ट मेयर को मिला था।

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक को चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन कहा जाता है। इसमे एक छोटी लेजर पल्स को समय के साथ विस्तार देते हुये , एम्प्लीफ़ाय कर वापस संकुचित किया जाता है।

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक को चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन कहा जाता है। इसमे एक छोटी लेजर पल्स को समय के साथ विस्तार देते हुये , एम्प्लीफ़ाय कर वापस संकुचित किया जाता है।

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक को चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन कहा जाता है। इसमे एक छोटी लेजर पल्स को समय के साथ विस्तार देते हुये , एम्प्लीफ़ाय कर वापस संकुचित किया जाता है।

अत्यंत सूक्ष्म लेजर पल्स से विभिन्न पदार्थो मे अत्यंत सटिकता से छेद कर सकते है, ये छेद जीवित प्राणीयों मे भी किये जा सकते है। हर वर्ष लाखो नेत्र शल्य चिकित्सा इसी अत्यंत सूक्ष्म लेजर बीम से किये जाते है।

अत्यंत सूक्ष्म लेजर पल्स से विभिन्न पदार्थो मे अत्यंत सटिकता से छेद कर सकते है, ये छेद जीवित प्राणीयों मे भी किये जा सकते है। हर वर्ष लाखो नेत्र शल्य चिकित्सा इसी अत्यंत सूक्ष्म लेजर बीम से किये जाते है।



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Monday 1 October 2018

2018 चिकित्सा नोबेल पुरस्कार : जेम्स पी एलिसन(James P. Allison) और तासुकू होंजो (Tasuku Honjo)

2018 चिकित्सा नोबेल कैंसर थेरपी विकसित करनेवाले जेम्स पी एलिसन(James P. Allison) और तासुकू होंजो (Tasuku Honjo) को

प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कारों की लिस्ट में इस साल पहली घोषणा चिकित्सा के क्षेत्र के लिए हुई। इस बार चिकित्सा के क्षेत्र में यह पुरस्कार दो लोगों को सामूहिक तौर पर दिया जा रहा है। जेम्स पी एलिसन(James P. Allison) और तासुकू होंजो((Tasuku Honjo) को कैंसर थेरपी की खोज के लिए यह सम्मान दिया जा रहा है। कैंसर की दुर्लभ बीमारी की इलाज के लिए दोनों वैज्ञानिकों ने ऐसी थेरपी विकसित की है जिससे शरीर की कोशिकाओं में इम्यून सिस्टम को कैंसर ट्यूमर से लड़ने के लिए मजबूत बनाया जा सकेगा।

नेगेटिव इम्यून रेग्यूलेशन के इनहिबिशन के ज़रिये कैंसर थेरेपी की खोज के लिए संयुक्त रूप से जेम्स एलिसन तथा तासुकू हॉन्जो को मेडिसिन का नोबल पुरस्कार दिया गया।

नेगेटिव इम्यून रेग्यूलेशन के इनहिबिशन के ज़रिये कैंसर थेरेपी की खोज के लिए संयुक्त रूप से जेम्स एलिसन तथा तासुकू हॉन्जो को मेडिसिन का नोबल पुरस्कार दिया गया।



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