In this blog you will enjoy with science

Wednesday, 14 June 2017

जापानी नाभिकिय दुर्घटना : तथ्यो का अभाव और समाचारो की बाढ़

1 मार्च 2011 को जापान मे आये रिक्टर स्केल पर 9.0 के भूकंप और भूकंप से उत्पन्न सुनामी से हुयी जान माल की हानी से सम्पूर्ण मानव जाति दुखी है। मानवता को हुयी इस क्षति के लिये ये दो कारक भूकंप और सूनामी काफी नही थे कि एक तीसरा संकट आ खड़ा हुआ। जापान के फुकुशीमा के नाभिकिय संयंत्र से नाभिकिय विकिरण का संकट पैदा हो गया है।
नाभिकिय संयंत्र की कार्यप्रणाली
नाभिकिय संयंत्र की कार्यप्रणाली
40 वर्ष पूराने फुकुशीमा के दायची नाभिकिय संयंत्र मे आयी इस गड़बड़ी का कारण वैकल्पिक सुरक्षा जनरेटर का काम ना करना है। यह वैकल्पिक सुरक्षा जनरेटर नाभिकिय संयंत्र को उसके काम ना करने की स्थिति मे ठंडा रखते है। ठंडा रखने का यह कार्य किसी शीतक को संयंत्र मे पंप कर किया जाता है, यह शीतक पानी भी हो सकता है। सामान्य स्थिति मे नाभिकिय संयत्र से उत्पन्न विद्युत ही उसे ठंडा करने के कार्य मे उपयोग की जाती है लेकिन रखरखाव के समय जब नाभिकिय संयत्र को बंद किया जाता है तब यह वैकल्पिक जनरेटर से उत्पन्न विद्युत ही संयत्र को ठंडा करने के कार्य मे उपयोग की जाती है। इन्ही वैकल्पिक सुरक्षा जनरेटरो को रखरखाव के अतिरिक्त आपातकालीन स्थिति मे प्रयोग किया जाता है।
11 मार्च को भूकंप आने पर नाभिकिय संयंत्र से विद्युत उत्पादन स्वचालित रूप से बंद हो गया। विद्युत उत्पादन के लिये उष्मा प्रदान करने वाली नाभिकिय विंखडन प्रक्रिया रूक गयी लेकिन युरेनियम 235 के विखंडन से उत्पन्न पदार्थ भी रेडीयो सक्रिय होते है। और ये पदार्थ भी अपने विखंडन से उष्मा उत्पन्न करते है।
इन रेडीयो सक्रिय पदार्थो से ऊर्जा एक निश्चित समय तक बनते रहती है, जो कुछ सप्ताह या महीनो तक हो सकती है। यह अवधी संयंत्र के इतिहास और अन्य कारको पर निर्भर करती है। संयंत्र के बंद होने के पश्चात के विखंडन से उत्पन्न यह उष्मा कार्यरत संयत्र के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा से कम अवश्य होती है लेकिन इसकी मात्रा नगण्य नही होती है। इस उष्मा को नियंत्रित करना आवश्यक होता है इसलिये संयंत्र के बंद होने के बाद वैकल्पिक सुरक्षा व्यवस्था द्वारा संयंत्र को ठंडा रखा जाता है।
ध्यान दिया जाए कि दायची का यह संयंत्र आधुनिक तरीके का नही है जिसमे सक्रिय ठंडा रखने वाली प्रणाली(Active Cooling Mechanism) की आवश्यकता नही होती है। आधुनिक संयंत्रो मे संयंत्र के बंद होने की स्थिति मे अतिरिक्त उष्मा स्वचालित संवहन शीतन प्रणाली(Passice automatic convection cooloing mechanism) द्बारा बाहर निकाल दी जाती है। केवल पुराने संयंत्रों मे ही बाह्य सुरक्षा जेनरेटर आधारित सक्रिय शीतन प्रणाली की आवश्यकता होती है।
इस दुर्घटना के अन्य कारणो मे से एक यह भी था कि एक संयत्र (इकाई 4) रखरखाव के लिए बंद था, इसकी नाभिकिय पदार्थ की छड़े बाहर रखी थी जो कि शीतक पानी से रखी होना चाहीये थी। इस कारण इन छड़ो का जीरकोनीयम आधारित आवरण क्षरित होकर नष्ट हो गया, जिससे युरेनियम आक्साईड की छड़े खुल गयी। इन गर्म छड़ो के पिघलने और पानी के संपर्क आने से उच्च तापमान पर पानी का विखंडन हुआ और  हायड्रोजन गैस बनना शुरू हो गयी।
जले पर नमक छिड़कते हुये यह हायड्रोजन गैस संयंत्र के बाहरी भाग मे पहुंच गयी। वहां पर आक्सीजन के संपर्क मे आकर हायड्रोजन गैस मे विस्फोट हो गया। इस विस्फोट से रिएक्टर प्रणाली को एक झटका लगा। ईंधन की छड़ो को ठंडा रखने के अंतिम उपाय के रूप मे रीएक्टर मे समुद्री जल भरना रह गया था, जो कि रिएक्टर को पुनः उपयोग के लिए अनुप्युक्त बना देता। इस सारे घटनाक्रम को एक साथ देखने से पता चलता है कि घटनाए कुछ इस तरह से घटी कि संयत्र की सुरक्षा से समझौता करना पढ़ा और नाभिकिय विकिरण का खतरा बढ गया। इस विकिरण ने आम जनता मे भय, अनिश्चितता, अटकलबाजी और खलबली को बढ़ावा दिया।
यह घटना गंभीर है, लेकिन इस घटना के पीछे मूल कारण डीजेल जनरेटरो का सुनामी के पश्चात काम नही करना है। सुनामी के बाद यह डीजेल जनरेटर सही ढंग से काम करते, तब मुझे इस लेख के लिखने की आवश्यकता नही होती क्योंकि दाईची नाभिकिय संयंत्र मे कोई दुर्घटना नही हुयी होती। आधुनिक नाभिकिय रिएक्टरो मे ईंधन की छड़ो को ठंडा रखने के लिए बाह्य उर्जा श्रोत पर निर्भरता नही होती है, दुर्भाग्य से दाईची के रिक्टर पूराने डीजाइन के थे।
इस सारी घटनाओ के फलस्वरूप कुछ लोगो ने नये नाभिकिय संयंत्रो के निर्माण पर रोक लगाने की मांग उठायी है। लेकिन हमे इस साधारण तथ्य को याद रखना चाहीये कि हमारे पास जिवाश्म आधारित ईंधन(खनिज तेल) का नाभिकिय संयत्रो के अतिरिक्त कोई विकल्प नही है।
निश्चित रूप से हम सौर, पवन , जल, जैव अपशिष्ट और उनके जैसे अन्य वैकल्पिक ऊर्जा श्रोतो का प्रयोग कर सकते है। लेकिन सभी संभव वैकल्पिक श्रोतो का भरपूर विस्तार करने के पश्चात भी भविष्य मे किसी अच्छे दिन वैकल्पिक ऊर्जा श्रोत हमारी जरूरत का 20% ही पूरा कर पायेंगे। बाकि 80% का क्या ? वैश्विक जलवायु परिवर्तन और बढती गर्मी को रोकने के लिए हमे ऐसी ऊर्जा चाहीये जो कार्बन डाय आक्साईड और अन्य ग्रीन हाउस गैसो का उत्सर्जन नही करें। वर्तमान मे नाभिकिय ऊर्जा के अतिरिक्त कोई विकल्प नही है। हां यह जरूरी है कि हमे नाभिकिय संयंत्रो को और सुरक्षित बनाना होगा।
आलोचक प्रश्न उठायेंगे कि नाभिकिय कचरे का क्या होगा ? इसका उत्तर एक प्रश्न के रूप मे होगा कि फ्रेंच वैज्ञानिक पिछले 40 वर्षो से नाभिकिय ऊर्जा का प्रयोग कर रहे है और नाभिकिय कचरे की समस्या क्यों नही है ? अधिकतर देशो के जैसे वे उपयोग किये गये इंधन का पुन:प्रयोग करते है, क्योंकि 95% नाभिकिय इंधन रिएक्टर मे पुन:प्रयोग किया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमरीका नाभिकिय कचरे को जमीन मे गाड़ देता है जोकि संसाधनो का दूरूपयोग है। अन्य सभी राष्ट्र जापान, भारत और फ्रांस सहित इंधन का पुनःप्रयोग करते है।

भारत के नाभिकिय संयंत्र और सुरक्षा

  • देश के अलग-अलग हिस्सों में 20 नाभिकिय संयंत्र हैं, जिनमें से 18 पीएचडब्ल्यूआर (प्रेशराइज्ड हेवी वॉटर रिएक्टर) और महाराष्ट्र के तारापुर में 2 बीडब्ल्यूआर (बॉइलिंग वॉटर रिएक्टर) हैं।
  • इन सभी 20 संयंत्रो की क्षमता 4780 मेगावॉट है। देश में 8 रिएक्टर ऐसे हैं, जो अभी निर्माणाधीन हैं और 21 संयंत्रो के लिए योजना बनायी रही है।
  • मुंबई में अभी कोई नाभिकिय संयंत्र नहीं है। वहां ट्रॉम्बे में तीन केंद्र थे, जिनमें से एक एशिया का पहला नाभिकिय रिएक्टर अप्सरा 1957 में बनाया गया था, लेकिन अब इसमें काम नहीं किया जाता। साइरस रिएक्टर को दिसंबर 2010 में बंद कर दिया गया था। तीसरे सेंटर ध्रुव को केवल शोध के लिए प्रयोग किया जाता है।
पब्लिक अवेयरनेस डिविजन (डिपार्टमेंट ऑफ अटॉमिक एनर्जी) के प्रमुख डॉ. एस. के. मल्होत्रा के अनुसार भूकंप, सूनामी और साइक्लोन जैसी समस्याओं को ध्यान में रखकर इन संयंत्रों  को बनाया गया है। जब भी नाभिकिय संयत्र संचालक (स्वचालित) को कोई भी आपातस्थिति की चेतावनी मिलती है तो संयत्रं बंद हो जाता है। इन संयंत्रों की दीवारें तकरीबन एक मीटर मोटी बनाई गई हैं, जिससे पानी इनके अंदर पहुंचना नामुमकिन जैसा है। भारत में लगे सभी रिएक्टरों को 8.1 रिक्टर स्केल के भूकंप के झटकों को झेलने की क्षमता के साथ बनाया गया है और इनमें खास बात यह है कि किसी भी स्थिति में इनका कूलिंग सिस्टम काम करेगा।
  • 2002 में गुजरात में आए 7.2 रिक्टर स्केल के झटकों ने जहां पूरे प्रदेश को हिला दिया था, वहीं काकरापार नाभिकिय संयंत्र की सुरक्षा को लेकर भी कुछ चिंता हुई थी। लेकिन इस भूकंप से काकरापार नाभिकिय संयंत्र को कोई नुकसान नहीं हुआ था।
  • दूसरी तरफ 2004 में आई सूनामी से पूरा दक्षिण भारत दहल उठा था, लेकिन तमिलनाडु के कलपक्कम में लगा नाभिकिय संयंत्र पूरी तरह सुरक्षित था।
भारत में लगे सभी रिएक्टरों को 8.1 रिक्टर स्केल के भूकंप के झटकों को झेलने की क्षमता के साथ बनाया गया है और इनमें खास बात यह है कि किसी भी स्थिति में इनका कूलिंग सिस्टम काम करेगा।

समाचारो की बाढ़ और तथ्यो का अभाव

मनोवैज्ञानिको के अनुसार किसी भी समझ के दायरे से बाहर की घटना से भयभीत होना मानव मन की स्वभाविक प्रतिक्रिया है। चेर्नोबील दुर्घटना के पशात सोवीयत सैनिको ने कठीन, जोखीम भरा सफाई का कार्य किया था। विकिरण से मृत्यु और कैंसर जैसी बिमारीयो का भय अपने चरम पर था। इस घटना के वर्षो पश्चात उस क्षेत्र मे कैंसर होने की दर नही बढ़ी है, आत्म हत्या की दर ही बढी़ है। चेर्नोबील मे जीवन अपने शवाब पर है, वन्य जीवन , पेड़ पौधे फलफूल रहे है।
अब जापान के फुकिशीमा की दुर्घटना से चेर्नोबील के जैसे ही आशंकाओ को पुनः जन्म दिया है। सारा विश्व वैसी ही आशंकाओ के घेरे मे है। यह कुछ वैसे ही है जब हम अपनी समझ के दायरे से बाहर की घटनाओ के लिए प्रतिक्रिया करते है। “चीकन लीटील” की कहानी सभी ने पढी होगी “आसमान गीर रहा है” , और तथ्यो की जांच किसी ने नही की। सभी जान बचाने भाग लिए !
दाईची के नाभिकिय संयंत्रों के चित्रो ने भय को कम नही किया है, उल्टे बढा़वा ही दिया है। बर्बाद नाभिकिय उर्जा संयंत्र, विस्फोट के चित्र, संयंत्र से उठता धुंवा और मेल्टडाउन के समाचारो ने खलबली मचा दी है। हर कोई टी वी के सामने बैठा है और अग्नि शामक ट्रको और हेलीकाप्टर से पानी के छीड़काव को देख रहा है।
जापान से विदेशीयो का पलायन जारी है। हवाई अड्डो पर कतारे लगी हुयी है। सभी एक ही बात कह रहे है कि उन्हे जो भी कुछ बताया जा रहा है उसपर विश्वास नही है। आलोचको के अनुसार जापान सरकार पूरी जानकारी नही दे रही है। जो भी जानकारी उप्लब्ध है वह कम है और देरी से दी गयी है।  जले पर नमक छिड़कने के लिए टोकयो विद्युत कंपनी (जो इस संयंत्र को चलाती है) का जानकारी उप्लब्ध कराने के मामले मे पिछला इतिहास अच्छा नही है।
जापानी अधिकारी लगातार कह रहे है कि विकिरण का स्तर स्वास्थ्य को हानी पहुंचाने के लायक नही है। लेकिन कोई मानने तैयार नही है।
यह हो गये समाचार ! लेकिन तथ्य क्या है ? चेर्नोबील से तुलना की जाये।
चेर्नोबील मे रिएक्टर के कर्मी कुछ ही सप्ताह मे मौत की गोद मे सो गये। इस दुर्घटना के अंतिम चरण मे विकिरण का स्तर 6,000 मीलीसीवरेट प्रति घंटा था। फुकुशीमा मे विकिरण का स्तर 400 मीलीसीवरेट प्रति घंटा है, वह भी संय़त्र के मध्य मे !
विश्व नाभिकिय समिती(World Nuclear Association) के अनुसार विकिरण से बीमार होने(कैंसर नही – Radiation Sickness) के लिए विकिरण का स्तर 1000 मीली सीवरेट प्रति घंटा आवश्यक है। फुकुशीमा संयंत्र मे काम कर रहे जापानी समुराईयो के लिए इस विकिरण स्तर(400 मीली सीवरेट) मे लंबे समय तक काम करना उन्हे बीमार कर सकता है लेकिन मार नही सकता।  समिती के अनुसार “400 मीली सीवरेट भयानक लगता है लेकिन वास्तविकता ऐसी नही है।
जापान सरकार ने इस दुर्घटना के स्तर को 5 तक बढ़ा दिया है जो कि स.रा. अमरीका के थ्री माईल द्वीप की दुर्घटना के बराबर है। इस दुर्घटना मे किसी की मत्यु नही हुयी थी ना ही कोई मृत्यु इससे जुड़ी थी। इससे जुड़े सभी लोग सुरक्षित है।
लेकिन किसी व्यक्ति को कितनी भी तथ्यात्मक जानकारी दी जाये, वह वही सुनना पसंद करेगा जो वह चाहता है। व्यक्ति को दी गयी जानकारी और उसकी समझ मे आयी जानकारी मे एक बड़ा अंतर होता है, वह अपनी मर्जी से जानकारी को चुनकर उस पर विश्वास करता है।
आपात स्थिती मे तथ्य भय की चीख मे दब जाते हैं।
=====================================================================
श्रोत : http://edition.cnn.com/2011/WORLD/asiapcf/03/19/nuclear.radiophobia/index.html?hpt=T2
1 मार्च 2011 को जापान मे आये रिक्टर स्केल पर 9.0 के भूकंप और भूकंप से उत्पन्न सुनामी से हुयी जान माल की हानी से सम्पूर्ण मानव जाति दुखी है। मानवता को हुयी इस क्षति के लिये ये दो कारक भूकंप और सूनामी काफी नही थे कि एक तीसरा संकट आ खड़ा हुआ। जापान के फुकुशीमा के नाभिकिय संयंत्र से नाभिकिय विकिरण का संकट पैदा हो गया है।
नाभिकिय संयंत्र की कार्यप्रणाली
नाभिकिय संयंत्र की कार्यप्रणाली
40 वर्ष पूराने फुकुशीमा के दायची नाभिकिय संयंत्र मे आयी इस गड़बड़ी का कारण वैकल्पिक सुरक्षा जनरेटर का काम ना करना है। यह वैकल्पिक सुरक्षा जनरेटर नाभिकिय संयंत्र को उसके काम ना करने की स्थिति मे ठंडा रखते है। ठंडा रखने का यह कार्य किसी शीतक को संयंत्र मे पंप कर किया जाता है, यह शीतक पानी भी हो सकता है। सामान्य स्थिति मे नाभिकिय संयत्र से उत्पन्न विद्युत ही उसे ठंडा करने के कार्य मे उपयोग की जाती है लेकिन रखरखाव के समय जब नाभिकिय संयत्र को बंद किया जाता है तब यह वैकल्पिक जनरेटर से उत्पन्न विद्युत ही संयत्र को ठंडा करने के कार्य मे उपयोग की जाती है। इन्ही वैकल्पिक सुरक्षा जनरेटरो को रखरखाव के अतिरिक्त आपातकालीन स्थिति मे प्रयोग किया जाता है।
11 मार्च को भूकंप आने पर नाभिकिय संयंत्र से विद्युत उत्पादन स्वचालित रूप से बंद हो गया। विद्युत उत्पादन के लिये उष्मा प्रदान करने वाली नाभिकिय विंखडन प्रक्रिया रूक गयी लेकिन युरेनियम 235 के विखंडन से उत्पन्न पदार्थ भी रेडीयो सक्रिय होते है। और ये पदार्थ भी अपने विखंडन से उष्मा उत्पन्न करते है।
इन रेडीयो सक्रिय पदार्थो से ऊर्जा एक निश्चित समय तक बनते रहती है, जो कुछ सप्ताह या महीनो तक हो सकती है। यह अवधी संयंत्र के इतिहास और अन्य कारको पर निर्भर करती है। संयंत्र के बंद होने के पश्चात के विखंडन से उत्पन्न यह उष्मा कार्यरत संयत्र के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा से कम अवश्य होती है लेकिन इसकी मात्रा नगण्य नही होती है। इस उष्मा को नियंत्रित करना आवश्यक होता है इसलिये संयंत्र के बंद होने के बाद वैकल्पिक सुरक्षा व्यवस्था द्वारा संयंत्र को ठंडा रखा जाता है।
ध्यान दिया जाए कि दायची का यह संयंत्र आधुनिक तरीके का नही है जिसमे सक्रिय ठंडा रखने वाली प्रणाली(Active Cooling Mechanism) की आवश्यकता नही होती है। आधुनिक संयंत्रो मे संयंत्र के बंद होने की स्थिति मे अतिरिक्त उष्मा स्वचालित संवहन शीतन प्रणाली(Passice automatic convection cooloing mechanism) द्बारा बाहर निकाल दी जाती है। केवल पुराने संयंत्रों मे ही बाह्य सुरक्षा जेनरेटर आधारित सक्रिय शीतन प्रणाली की आवश्यकता होती है।
इस दुर्घटना के अन्य कारणो मे से एक यह भी था कि एक संयत्र (इकाई 4) रखरखाव के लिए बंद था, इसकी नाभिकिय पदार्थ की छड़े बाहर रखी थी जो कि शीतक पानी से रखी होना चाहीये थी। इस कारण इन छड़ो का जीरकोनीयम आधारित आवरण क्षरित होकर नष्ट हो गया, जिससे युरेनियम आक्साईड की छड़े खुल गयी। इन गर्म छड़ो के पिघलने और पानी के संपर्क आने से उच्च तापमान पर पानी का विखंडन हुआ और  हायड्रोजन गैस बनना शुरू हो गयी।
जले पर नमक छिड़कते हुये यह हायड्रोजन गैस संयंत्र के बाहरी भाग मे पहुंच गयी। वहां पर आक्सीजन के संपर्क मे आकर हायड्रोजन गैस मे विस्फोट हो गया। इस विस्फोट से रिएक्टर प्रणाली को एक झटका लगा। ईंधन की छड़ो को ठंडा रखने के अंतिम उपाय के रूप मे रीएक्टर मे समुद्री जल भरना रह गया था, जो कि रिएक्टर को पुनः उपयोग के लिए अनुप्युक्त बना देता। इस सारे घटनाक्रम को एक साथ देखने से पता चलता है कि घटनाए कुछ इस तरह से घटी कि संयत्र की सुरक्षा से समझौता करना पढ़ा और नाभिकिय विकिरण का खतरा बढ गया। इस विकिरण ने आम जनता मे भय, अनिश्चितता, अटकलबाजी और खलबली को बढ़ावा दिया।
यह घटना गंभीर है, लेकिन इस घटना के पीछे मूल कारण डीजेल जनरेटरो का सुनामी के पश्चात काम नही करना है। सुनामी के बाद यह डीजेल जनरेटर सही ढंग से काम करते, तब मुझे इस लेख के लिखने की आवश्यकता नही होती क्योंकि दाईची नाभिकिय संयंत्र मे कोई दुर्घटना नही हुयी होती। आधुनिक नाभिकिय रिएक्टरो मे ईंधन की छड़ो को ठंडा रखने के लिए बाह्य उर्जा श्रोत पर निर्भरता नही होती है, दुर्भाग्य से दाईची के रिक्टर पूराने डीजाइन के थे।
इस सारी घटनाओ के फलस्वरूप कुछ लोगो ने नये नाभिकिय संयंत्रो के निर्माण पर रोक लगाने की मांग उठायी है। लेकिन हमे इस साधारण तथ्य को याद रखना चाहीये कि हमारे पास जिवाश्म आधारित ईंधन(खनिज तेल) का नाभिकिय संयत्रो के अतिरिक्त कोई विकल्प नही है।
निश्चित रूप से हम सौर, पवन , जल, जैव अपशिष्ट और उनके जैसे अन्य वैकल्पिक ऊर्जा श्रोतो का प्रयोग कर सकते है। लेकिन सभी संभव वैकल्पिक श्रोतो का भरपूर विस्तार करने के पश्चात भी भविष्य मे किसी अच्छे दिन वैकल्पिक ऊर्जा श्रोत हमारी जरूरत का 20% ही पूरा कर पायेंगे। बाकि 80% का क्या ? वैश्विक जलवायु परिवर्तन और बढती गर्मी को रोकने के लिए हमे ऐसी ऊर्जा चाहीये जो कार्बन डाय आक्साईड और अन्य ग्रीन हाउस गैसो का उत्सर्जन नही करें। वर्तमान मे नाभिकिय ऊर्जा के अतिरिक्त कोई विकल्प नही है। हां यह जरूरी है कि हमे नाभिकिय संयंत्रो को और सुरक्षित बनाना होगा।
आलोचक प्रश्न उठायेंगे कि नाभिकिय कचरे का क्या होगा ? इसका उत्तर एक प्रश्न के रूप मे होगा कि फ्रेंच वैज्ञानिक पिछले 40 वर्षो से नाभिकिय ऊर्जा का प्रयोग कर रहे है और नाभिकिय कचरे की समस्या क्यों नही है ? अधिकतर देशो के जैसे वे उपयोग किये गये इंधन का पुन:प्रयोग करते है, क्योंकि 95% नाभिकिय इंधन रिएक्टर मे पुन:प्रयोग किया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमरीका नाभिकिय कचरे को जमीन मे गाड़ देता है जोकि संसाधनो का दूरूपयोग है। अन्य सभी राष्ट्र जापान, भारत और फ्रांस सहित इंधन का पुनःप्रयोग करते है।

भारत के नाभिकिय संयंत्र और सुरक्षा

  • देश के अलग-अलग हिस्सों में 20 नाभिकिय संयंत्र हैं, जिनमें से 18 पीएचडब्ल्यूआर (प्रेशराइज्ड हेवी वॉटर रिएक्टर) और महाराष्ट्र के तारापुर में 2 बीडब्ल्यूआर (बॉइलिंग वॉटर रिएक्टर) हैं।
  • इन सभी 20 संयंत्रो की क्षमता 4780 मेगावॉट है। देश में 8 रिएक्टर ऐसे हैं, जो अभी निर्माणाधीन हैं और 21 संयंत्रो के लिए योजना बनायी रही है।
  • मुंबई में अभी कोई नाभिकिय संयंत्र नहीं है। वहां ट्रॉम्बे में तीन केंद्र थे, जिनमें से एक एशिया का पहला नाभिकिय रिएक्टर अप्सरा 1957 में बनाया गया था, लेकिन अब इसमें काम नहीं किया जाता। साइरस रिएक्टर को दिसंबर 2010 में बंद कर दिया गया था। तीसरे सेंटर ध्रुव को केवल शोध के लिए प्रयोग किया जाता है।
पब्लिक अवेयरनेस डिविजन (डिपार्टमेंट ऑफ अटॉमिक एनर्जी) के प्रमुख डॉ. एस. के. मल्होत्रा के अनुसार भूकंप, सूनामी और साइक्लोन जैसी समस्याओं को ध्यान में रखकर इन संयंत्रों  को बनाया गया है। जब भी नाभिकिय संयत्र संचालक (स्वचालित) को कोई भी आपातस्थिति की चेतावनी मिलती है तो संयत्रं बंद हो जाता है। इन संयंत्रों की दीवारें तकरीबन एक मीटर मोटी बनाई गई हैं, जिससे पानी इनके अंदर पहुंचना नामुमकिन जैसा है। भारत में लगे सभी रिएक्टरों को 8.1 रिक्टर स्केल के भूकंप के झटकों को झेलने की क्षमता के साथ बनाया गया है और इनमें खास बात यह है कि किसी भी स्थिति में इनका कूलिंग सिस्टम काम करेगा।
  • 2002 में गुजरात में आए 7.2 रिक्टर स्केल के झटकों ने जहां पूरे प्रदेश को हिला दिया था, वहीं काकरापार नाभिकिय संयंत्र की सुरक्षा को लेकर भी कुछ चिंता हुई थी। लेकिन इस भूकंप से काकरापार नाभिकिय संयंत्र को कोई नुकसान नहीं हुआ था।
  • दूसरी तरफ 2004 में आई सूनामी से पूरा दक्षिण भारत दहल उठा था, लेकिन तमिलनाडु के कलपक्कम में लगा नाभिकिय संयंत्र पूरी तरह सुरक्षित था।
भारत में लगे सभी रिएक्टरों को 8.1 रिक्टर स्केल के भूकंप के झटकों को झेलने की क्षमता के साथ बनाया गया है और इनमें खास बात यह है कि किसी भी स्थिति में इनका कूलिंग सिस्टम काम करेगा।

समाचारो की बाढ़ और तथ्यो का अभाव

मनोवैज्ञानिको के अनुसार किसी भी समझ के दायरे से बाहर की घटना से भयभीत होना मानव मन की स्वभाविक प्रतिक्रिया है। चेर्नोबील दुर्घटना के पशात सोवीयत सैनिको ने कठीन, जोखीम भरा सफाई का कार्य किया था। विकिरण से मृत्यु और कैंसर जैसी बिमारीयो का भय अपने चरम पर था। इस घटना के वर्षो पश्चात उस क्षेत्र मे कैंसर होने की दर नही बढ़ी है, आत्म हत्या की दर ही बढी़ है। चेर्नोबील मे जीवन अपने शवाब पर है, वन्य जीवन , पेड़ पौधे फलफूल रहे है।
अब जापान के फुकिशीमा की दुर्घटना से चेर्नोबील के जैसे ही आशंकाओ को पुनः जन्म दिया है। सारा विश्व वैसी ही आशंकाओ के घेरे मे है। यह कुछ वैसे ही है जब हम अपनी समझ के दायरे से बाहर की घटनाओ के लिए प्रतिक्रिया करते है। “चीकन लीटील” की कहानी सभी ने पढी होगी “आसमान गीर रहा है” , और तथ्यो की जांच किसी ने नही की। सभी जान बचाने भाग लिए !
दाईची के नाभिकिय संयंत्रों के चित्रो ने भय को कम नही किया है, उल्टे बढा़वा ही दिया है। बर्बाद नाभिकिय उर्जा संयंत्र, विस्फोट के चित्र, संयंत्र से उठता धुंवा और मेल्टडाउन के समाचारो ने खलबली मचा दी है। हर कोई टी वी के सामने बैठा है और अग्नि शामक ट्रको और हेलीकाप्टर से पानी के छीड़काव को देख रहा है।
जापान से विदेशीयो का पलायन जारी है। हवाई अड्डो पर कतारे लगी हुयी है। सभी एक ही बात कह रहे है कि उन्हे जो भी कुछ बताया जा रहा है उसपर विश्वास नही है। आलोचको के अनुसार जापान सरकार पूरी जानकारी नही दे रही है। जो भी जानकारी उप्लब्ध है वह कम है और देरी से दी गयी है।  जले पर नमक छिड़कने के लिए टोकयो विद्युत कंपनी (जो इस संयंत्र को चलाती है) का जानकारी उप्लब्ध कराने के मामले मे पिछला इतिहास अच्छा नही है।
जापानी अधिकारी लगातार कह रहे है कि विकिरण का स्तर स्वास्थ्य को हानी पहुंचाने के लायक नही है। लेकिन कोई मानने तैयार नही है।
यह हो गये समाचार ! लेकिन तथ्य क्या है ? चेर्नोबील से तुलना की जाये।
चेर्नोबील मे रिएक्टर के कर्मी कुछ ही सप्ताह मे मौत की गोद मे सो गये। इस दुर्घटना के अंतिम चरण मे विकिरण का स्तर 6,000 मीलीसीवरेट प्रति घंटा था। फुकुशीमा मे विकिरण का स्तर 400 मीलीसीवरेट प्रति घंटा है, वह भी संय़त्र के मध्य मे !
विश्व नाभिकिय समिती(World Nuclear Association) के अनुसार विकिरण से बीमार होने(कैंसर नही – Radiation Sickness) के लिए विकिरण का स्तर 1000 मीली सीवरेट प्रति घंटा आवश्यक है। फुकुशीमा संयंत्र मे काम कर रहे जापानी समुराईयो के लिए इस विकिरण स्तर(400 मीली सीवरेट) मे लंबे समय तक काम करना उन्हे बीमार कर सकता है लेकिन मार नही सकता।  समिती के अनुसार “400 मीली सीवरेट भयानक लगता है लेकिन वास्तविकता ऐसी नही है।
जापान सरकार ने इस दुर्घटना के स्तर को 5 तक बढ़ा दिया है जो कि स.रा. अमरीका के थ्री माईल द्वीप की दुर्घटना के बराबर है। इस दुर्घटना मे किसी की मत्यु नही हुयी थी ना ही कोई मृत्यु इससे जुड़ी थी। इससे जुड़े सभी लोग सुरक्षित है।
लेकिन किसी व्यक्ति को कितनी भी तथ्यात्मक जानकारी दी जाये, वह वही सुनना पसंद करेगा जो वह चाहता है। व्यक्ति को दी गयी जानकारी और उसकी समझ मे आयी जानकारी मे एक बड़ा अंतर होता है, वह अपनी मर्जी से जानकारी को चुनकर उस पर विश्वास करता है।
आपात स्थिती मे तथ्य भय की चीख मे दब जाते हैं।
=====================================================================
श्रोत : http://edition.cnn.com/2011/WORLD/asiapcf/03/19/nuclear.radiophobia/index.html?hpt=T2
डीस्क्लेमर : यह लेख 21 मार्च 2011 तक ज्ञात तथ्यों पर आधारित है।
Share:

0 comments:

Post a Comment

Einstien Academy. Powered by Blogger.

Solve this

 Dear readers.  So you all know my current situation from beyond this dimension but for some reason your are reading this in this dimension ...

Contact Form

Name

Email *

Message *

Email Newsletter

Subscribe to our newsletter to get the latest updates to your inbox. ;-)


Your email address is safe with us!

Search This Blog

Blog Archive

Popular Posts

Blogroll

About

Email Newsletter

Subscribe to our newsletter to get the latest updates to your inbox. ;-)


Your email address is safe with us!

Blog Archive