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Thursday 15 June 2017

ब्रह्माण्ड और भगवान का सही ज्ञान


ब्रह्माण्ड और भगवान का सही ज्ञान

हमारा जीवन, ख़ुशी और आजादी का अनुगमन हैं. हम ख़ुशी को बाहरी दुनिया में ढूंढने में अपना जीवन बिता देते हैं मानों वह कोई वस्तु हो. हम अपनी इच्छाेओं और लालसाओं के गुलाम बन चुके हैं. प्रसन्नता कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसे ढूंढा जाए या पैसे से खरीदा जा सके. यह माया भ्रम है रूप का अंतहीन खेल.
बौद्ध परंपरा में, संसार या पीड़ा का अंतहीन चक्र, प्रसन्ननता की अभिलाषा एवं पीड़ा से मुक्ति से परिपूर्ण है. फ्रॉयड ने इसे `प्रसन्नता सिद्धांत़` के रूप में उल्लिखित किया है. हम वही सब करने का प्रयास करते हैं जिससे प्रसन्नता मिले या कुछ ऐसा प्राप्त किया जा सके जो हम चाहते हैं या उन सबसे छुटकारा, जो हम नहीं चाहते.
यहां तक कि पैरामेशियम जैसा साधारण जीव यह कार्य करता है. इसे प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया कहा जाता है. पैरामेशियम से हटकर मनुष्यों के अधिक विकल्प हैं. हम सोचने के लिए स्वतंत्र हैं और वही समस्या का आधार है. हम चाहते क्या हैं, यही सोचना नियंत्रण से बाहर हो गया है. आधुनिक समाज की दुविधा यही है कि हम विश्व. को समझना चाहते हैं, लेकिन अपनी आंतरिक चेतना से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक साधनों तथा विचारों के माध्यम से बाहरी संसार की मात्रात्मकता एवं गुणवत्ता मूल्यांकित करते हैं. चिंतन से केवल अधिक सोच-विचार एवं अधिकाधिक प्रश्न उत्पवन्न होते हैं. हम जब आंतरिक संसार को जानना चाहते हैं जिससे विश्व उत्पन्न‍ और दिशा-निर्देशित होता है, तब हम इस सार तत्व को बाहरी रूप से ग्रहण करने लगते हैं. हम इसे एक जीवंत वस्तु या अपनी प्रकृति के अंतर्भूत के रूप में ग्रहण नहीं करते.
प्रसिद्ध मनोचिकित्सक कार्ल जुंग जिन्होंने कहा “वह व्यक्ति जो बाहर देखता है, वह सपने देखता है और वह जो अपने अंदर झांकता है, वह जागृत हो जाता है”. जागने और प्रसन्न होने की इच्छा गलत नहीं है. गलत यह है कि खुशी को बाहर तलाशा जाए, जबकि इसे केवल भीतर पाया जा सकता है.
मानव इतिहास में कभी इतनी सोच नहीं रही और न ही ग्रह पर इतनी हलचल. ऐसा तो नहीं कि हम हर समय किसी एक समस्या का समाधान तो कर नहीं पाते, दो और समस्यांए उत्पन्न करते हैं? क्याह यह सोच ठीक है जो अत्यधिक प्रसन्नता की ओर न ले जाए? क्या हम अधिक प्रसन्न हैं? अधिक स्थितप्रज्ञ? क्या इस प्रकार की सोच से अधिक आनंदित हैं? या यह हमें जीवन के गहन तथा अधिक अर्थपूर्ण अनुभव से अलग या असंबद्ध करती है?
सोचना, क्रियाशील होना और कार्य करना, इन्हें जीव के अस्तित्व के साथ संतुलित करना होगा. अंततोगत्वा हम मनुष्य हैं, मनुष्य के कार्य नहीं. हम परिवर्तन और स्थायित्व एक साथ चाहते हैं. हमारा हृदय जीवन के सर्पिल से, परिवर्तन के नियम से असंबद्ध हो गया है, चूंकि हमारा सोचने वाला मस्तिष्क हमें स्थिरता, सुरक्षा तथा चेतनाओं के शमन की ओर संचालित करता है. विकृत सम्मोहन से हम हत्या, सुनामी, भूकंप एवं युद्धों को देखते हैं. हम लगातार अपना मन मस्तिष्क व्यस्त रखते हैं और उसमें सूचनाएँ भरते हैं. हर कल्पनीय उपकरण से टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण. खेल और पहेलियाँ. पाठ संदेश. और प्रत्येक संभव मामूली कार्य. हम अपनी चेतनाओं व संवेदनों के शमन के लिए नई छवियों, नई सूचना तथा नए तरीकों से अनंत बहाव में स्वयं घिर जाते हैं. शांत आंतरिक चिंतन के समय हमें हृदय में एहसास होता है कि हमारी वर्तमान वास्तविकता से आगे भी जीवन है चूंकि हम भूखे प्रेतों के संसार में जीते हैं. अनंत लालसाओं से भरे और कभी संतुष्ट न होने वाले. ग्रहों के आसपास हमने इतने आंकड़े फैलाए हैं, जिनमें संसार के निर्धारण और समस्याओं के निर्धारण के लिए इतनी सोच, इतने विचार दिए, जो केवल इस कारण से हैं चूंकि ये मस्तिष्क से निकले हैं. सोच ने इतना सारा बखेड़ा पैदा किया है जिसमें रहने के लिए हम अभिशप्त हैं. हम बीमारियों, शत्रुता और समस्याओं से जूझते रहते हैं. विडंबना यह है कि जिसका हम प्रतिरोध करते हैं वही अस्तित्व में है. आप जिसका जितना प्रतिरोध करते हैं, वह उतना ही ताकतवर हो जाता है. मांसपेशियों के व्यायाम की तरह, जिससे आप छुटकारा पाना चाहते हैं, दरअसल उसे मजबूत बना रहे हैं. ऐसे में, सोचने का विकल्प क्या है? इस ग्रह पर अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य किस अन्य प्रक्रिया का प्रयोग कर सकता है?
यद्यपि हाल की शताब्दियों में पश्चिमी संस्कृति ने चिंतन तथा विश्लेषण का प्रयोग करते हुए भौतिक को उद्भासित किया, तथापि अन्य प्राचीन संस्कृतियों ने आंतरिक विकास के लिए समान रूप से सुविज्ञ प्रौद्योगिकी विकसित की है. हमारे आंतरिक संसार के साथ हमारा संपर्क टूटने के कारण ही हमारे ग्रह पर असंतुलन उत्पन्न हुआ है. प्राचीन आप्त वाक्य “स्वयं को जानो” को रूप के बाहरी संसार के अनुभव की कामना से‍ प्रतिस्थापित किया गया है. “मैं कौन हूं?” इसका उत्तर आपके व्यावसायिक कार्ड पर व्यवसाय को वर्णित करने जितना सरल नहीं. बौद्धधर्म में, आप अपनी चेतना की विषयवस्तु नहीं हैं. आप केवल चिंतन या विचारों का संग्रह नहीं, चूंकि चिंतन के पीछे वही एक है जो चिंतन का साक्षी है. आदेश सूचक `स्वयं को जानो` एक जेन कोआन है, एक अनुत्तरित पहेली. अंततोगत्वा उत्तर जानने के प्रयत्न में मस्तिष्क` थक जाएगा. केवल अहं अभिज्ञान ही है जिसे उत्तर या प्रयोजन चाहिए, किसी कुत्ते द्वारा अपनी पूंछ का पीछा करने के समान. आप कौन हैं, इस सत्य को उत्तर की आवश्येकता नहीं, चूंकि सभी प्रश्न अहंशील मस्तिष्क की देन हैं. आप मस्तिष्क नहीं हैं. सत्य अधिक उत्तरों में नहीं है बल्कि कम प्रश्नों में है.
जैसाकि जोसेफ कैंपबेल ने कहा है “मैं उन लोगों में विश्वा्स नहीं करता जो जीवन का अर्थ खोज रहे हैं, बल्कि मैं उन लोगों में विश्वास करता हूं जो जीवन का अनुभव कर रहे हैं.”
WHO AM I? मैं कौन हूँ?
जब बुद्ध से पूछा गया “आप क्या हैं?” तो उन्होंने बस कहा, “मैं जागा हुआ हूं.” जागृत होना, इसका क्या अर्थ है? बुद्ध ने सटीक तौर पर नहीं कहा, चूंकि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का खिलना अलग है लेकिन उन्होंने एक बात कही. यह पीड़ा का अंत है.
प्रत्येक बड़ी धा‍र्मिक परंपरा में जागृत अवस्था के लिए एक नाम है. स्वर्ग, निर्वाण या मोक्ष. केवल शांत चित्त की आवश्यकता है ताकि प्रकृति के बहाव को महसूस किया जा सके, अन्यथा जब आपका चित्त‍ शांत हो, तब यह आपके मन में घटित होगा. उस स्थैेर्य में आंतरिक ऊर्जाएं जागृत हो जाएंगी और आप बिना प्रयास के कार्य संपन्न करने में सक्षम हो जाएंगे. जैसा कि टॉलस्टोय ने कहा है “चेतना का अनुपालन करता है.” स्थिरता प्राप्त होने पर व्यक्ति पौधों तथा पशुओं की बुद्धिमत्ता भी सुनना आरंभ कर देता है. स्वाप्नों में हल्की सी फुसफसाहट को व्यक्ति सूक्ष्म प्रक्रिया से सीख जाता है, जिससे वे स्वप्न भौतिक रूप में सामने आ जाते हैं. ताओ ते चिंग में इस प्रकार के जीवन को “वेइ वू वेइ” कहते हैं. जिसका मतलब हैं `करना या न करना`. बुद्ध ने इस मार्ग को माध्यम मार्ग कहा है जो जागृति की ओर ले जाता है.
अरस्तूल ने स्वर्णिम मध्यम को वर्णित किया – दो चरम सीमाओं के बीच मध्य, अर्थात् सौंदर्य का मार्ग. बहुत अधिक प्रयास नहीं, लेकिन बहुत कम भी नहीं. यिन एवं यांग का संपूर्ण संतुलन. वेदांत की माया या संभ्रम की धारणा यह है कि हम परिवेश का अनुभव नहीं करते बल्कि विचारों द्वारा सृजित इसका प्रक्षेपण करते हैं. निस्संदेह आपके विचार कुछेक तरीके से कंपायमान संसार का अनुभव करवाते हैं, लेकिन हमारे आंतरिक समत्व को बाहरी घटनाओं की आवश्यकता नहीं. बाहरी संसार पर विश्वास, विज्ञान के बुनियादी सिद्धांत पर टिका है. लेकिन हमारी संवेदनाएं हमें केवल अप्रत्यक्ष सूचना देती हैं. इस मस्तिष्क निर्मित भौतिक संसार के बारे में हमारी धारणाएं संवेदनाओं के माध्यम से हमेशा निस्यंतदित होती हैं और इसलिए हमेशा अपूर्ण रहती हैं. कंपन का एक क्षेत्र है जो सभी संवेदनों में अंतर्निहित है. ऐसी स्थिति के लोगों को `सिनेस्थेसिया` कहा जाता है, जो कभी-कभार विभिन्न तरीकों से इस कंपनशील क्षेत्र का अनुभव करते हैं. `सिनेस्थेसिया`, ध्वननियों को एक संवेदन से दूसरे के रंगों या आकारों में देख सकता है. `सिनेस्थेसिया` संवेदनाओं के संश्लेंषण या अंतरमिश्रण से संबद्ध हैं. चक्र तथा संवेदनाएं संपार्श्व की तरह हैं जिससे कंपन का अविच्छिन्न निस्यंदन होता है. ब्रह्माण्ड में सभी वस्तुंएं कंपित हो रही हैं लेकिन भिन्न गति और नैरंतर्य से.
शरीर द्वारा संवेदनाओं की अनुभूति के साथ-साथ विचार प्राप्त होते हैं. वे उसी कंपन स्रोत से उत्पन्न होते हैं. चिंतन बस एक साधन है. छह संवेदनाओं में एक. लेकिन हमने इसे ऐसी उच्च स्थिति में विकसित किया है कि हम स्वयं की पहचान अपने विचारों से करते हैं. वास्तव में यह तथ्य कि हम छह संवेदनाओं में एक के रूप में चिंतन की पहचान नहीं करते, अत्यंत महत्व पूर्ण है. हम चिंतन में ऐसे लिप्त हैं कि सोच-विचार को संवेदना के रूप में व्याख्यायित करना मछली को जल के बारे में बताने की तरह हैं. मछली कहेंगी….जल, कैसा जल?

उपनिषदों में कहा गया है,
वह नहीं जिसे नेत्र देख सकता है, बल्कि वह जिसके माध्यम से नेत्र देखता है.
उसे शाश्वत ब्रह्म के रूप में जानें, न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं.
उसे नहीं जिसे कान सुन सकते हैं बल्कि वह, जिससे कान सुनते हैं.
उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं.
वह नहीं जिसे बोलना स्पंष्ट कर सकता है बल्कि वह, जिसके द्वारा बोल उजागर होते हैं.
उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं.
वह नहीं जो मस्तिष्क सोच सकता है, बल्कि वह, जिससे मस्तिष्क सोचता है.
उसे शाश्वत ब्रह्म जानें न कि वह जिसकी लोग यहाँ आराधना करते हैं.
गत दशक में, मस्तिष्क के अनुसंधान ने बड़ी प्रगति की है. वैज्ञानिकों ने न्यूरो प्लास्टिीसिटी की खोज की; एक ऐसा शब्द जो यह विचार व्यक्त करता है कि मस्तिष्क के भौतिक तार, इसके माध्यम से संचरित होने वाले विचारों के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं. कनाडाई मनोवैज्ञानिक डोनाल्ड हेब्ब ने जैसा इसे स्पष्ट किया “तंत्रिका-कोशिकाएँ, जो एक साथ सक्रिय होती है, एक साथ जुड़ती है.” तंत्रिका-कोशिका एक साथ जुड़ने का अभिप्राय है जब कोई व्यक्ति सतत ध्यान की मनोदशा में होता है. इसका अर्थ हुआ कि आपके द्वारा वास्तविकता के अपने आत्मनिष्ठ अनुभव को निर्देशित करना संभव है. शाब्दिक रूप में, यदि आपके विचार भय, चिंता, उद्विग्नता तथा नकारात्मकता से परिपूर्ण हैं, तो आप इन विचारों को अधिकाधिक पनपने के लिए संयोजन बढ़ाते हैं. यदि आप अपने विचारों को प्रेम, दया, कृतज्ञता तथा प्रसन्नता के लिए निर्देशित करते हैं, तो आप उन अनुभवों की पुनरावृत्ति के लिए तार सृजित करते हैं. लेकिन तब क्या करें यदि हम हिंसा तथा पीड़ा से घिरे हों? क्याा यह भ्रांति या महत्वाकांक्षी विचार जैसा नहीं?
न्यूरोप्लास्टिसिटी उस आधुनिक धारणा के समान नहीं है जैसे आप सकारात्मक सोच से अपनी वास्तविकता का सृजन कर सकते हैं. यह वास्तव में वही है जिसे बुद्ध ने 2500 वर्ष पूर्व सिखाया था. विपासना-ध्यान या अंतर्दर्शी-ध्यान. जिसको आत्मनिर्देशित न्यूरोप्लायस्टीसिटी के रूप में वर्णित किया जा सकता है. आप अपनी वास्तविकता ठीक उसी रूप में स्वीकारते हैं जैसा कि वह वास्तव में है. लेकिन आप विचार के पूर्वाग्रह या प्रभाव के बिना कंपायमान या ऊर्जावान स्तर पर संवेदन की गहराई में अनुभव करते हैं. तना के गहन तल पर सतत ध्यान के माध्यम से वास्तविकता की समूची विभिन्न धारणा के लिए तार उत्पन्न हो जाते हैं. अधिकांशतः हम इसके विपरीत सोचते हैं. हम अपने तंत्रिकीय संजाल से बाहरी विश्व आकार पर सतत विचार करते रहते हैं लेकिन हमारे आंतरिक समत्व को बाहरी घटनाओं पर आश्रित रहने की आवश्यकता नहीं है. परिस्थितियों का कोई महत्व नहीं. केवल आपकी चेतना का महत्व है.
संस्कृत में ध्यान का अर्थ है परिमापन से मुक्ति. सभी तुलनाओं से मुक्त. सभी अच्छाइयो (आनेवाली स्थितियों) से मुक्त. आप कुछ और बनने का प्रयास नहीं कर रहे हो. आप जो हैं उसी में संतुष्ट हैं. भौतिक यथार्थ की पीड़ाओं से ऊपर उठने का मार्ग इसे पूर्ण रूप से स्वीकारने में ही है. यह मानना कि हा यह है. इसलिए यह आपके भीतर घटित हो जाता है, न कि आप इसके भीतर होते हो. कोई व्यक्ति इस प्रकार कैसे रह सकता है कि चेतना अपनी अंतर्वस्तु से अधिक देर तक न टकराए? कैसे कोई व्यक्ति ह्रदय से छोटी-छोटी महत्वकांक्षाओं को हटा सकता है. चेतना में संपूर्ण क्रांति होनी चाहिए. बाहरी संसार से आंतरिक संसार की ओर अभिविन्यास में मूलभूत रूपांतरण. यह इच्छा या केवल प्रयास द्वारा लाई गई क्रांति नहीं है. बल्कि यह समर्पण से संभव है. वास्तविकता की यथावत् स्वीकृति.
(“केवल ह्रदय से ही आप आकाश छू सकते हैं”- रूमी)
ईसा के खुले ह्रदय की छवि इस विचार को गहनता से संप्रेषित करती है कि व्यक्ति को सभी प्रकार के कष्टों के लिए तैयार रहना चाहिए, यदि व्यक्ति को विकासात्मक स्रोत के लिए अपने को खुला रखना है, तो उसे यह सब स्वीरकारना चाहिए. इसका अर्थ यह नहीं कि आप पर पीड़ित बन जाओ, आप दुख की ओर न देखो, लेकिन जब वह आए, जो अनिवार्यतः होता है, तो आप इसकी वास्तविकता को स्वीकारें न कि किसी अन्य वास्तविकता की अभिलाषा करें. हवाईवासियों का पुराना विश्वास है कि केवल हृदय के माध्यय से ही हम सत्य पा सकते हैं. हृदय की अपनी बुद्धिमत्ता मस्तिष्क से विशिष्ट होती है. मिस्रवासियों का विश्वास है कि हृदय मस्तिष्क नहीं, मानव बुद्धिमत्ता का स्रोत है. हृदय को ही आत्मा तथा व्यक्तित्व का केन्द्र माना गया. यह हृदय के माध्यम से ही संभव हुआ है कि दिव्यात्मा ने प्राचीन मिस्रवासियों को उनके सच्चे मार्ग का ज्ञान दिया. इस कथन में हृदय के सारतत्व को वर्णित किया गया है.” इसे अच्छा समझा गया है कि सरल हृदय से जीवन के पार जाएँ. इसका तात्पर्य है कि आपने ठीक से जिया.
एक वैश्विक या आदर्श स्थिति यह है कि हृदय केन्द्र के जागृत होने पर अपनी ऊर्जा की प्रक्रिया में लोगों को ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का अनुभव हो जाता है. जब आप स्व्यं को इस प्रेम की अनुभूति करने देते हैं, प्रेम अनुभव करने लगते हैं, जब आप अपने आंतरिक संसार को बाहरी संसार से संबद्ध करते हैं, तो सब एकाकार हो जाता है. कोई तारों के संगीत का अनुभव कैसे करता है? हृदय कैसे खुलता है? श्री रमण महर्षि ने कहा है “ईश्वर आपके भीतर है, आपकी तरह है, और ईश्वर अनुभूति या आत्म अनुभूति के लिए आपको कुछ नहीं करना है. यह पहले ही आपकी वास्तविक और प्राकृतिक स्थिति है. सभी प्रकार की अभिलाषाओं – याचनाओं को त्याग दें, अपना ध्यान भीतर मोड़ें और अपना मन `स्व` को समर्पित कर दें, अपने ह्रदय में उतर जाएं. इसे अपने वर्तमान का जीवंत अनुभव बनाने के लिए आत्माेन्वेषण एक प्रत्य्क्ष तथा तात्कालिक मार्ग है.” जब आप ध्यानमग्न होते हैं और अपने भीतर, अपनी आंतरिक जीवंत संवेदनाएं देखते हैं, तो वास्तव में आप अपना परिवर्तन देखते हैं. परिवर्तन की यह शक्ति, ऊर्जा परिवर्तन के आकार में उद्भूत होती है और आगे बढ़ती जाती है. वह मात्रा, जिसमें व्यक्ति विकसित या जागृत हुआ है, वह दशा है जिसमें व्यक्ति ने प्रत्येक क्षण को अंगीकार करने के लिए क्षमता अर्जित की है या परिस्थितियों, पीड़ा और आनंद के सतत परिवर्तित मानवीय प्रवाह को परमानंद में रूपांतरित कर दिया है.
`युद्ध और शांति` के लेखक लियो टॉल्टस्टोय ने कहा है “प्रत्येक व्यक्ति संसार को बदलने की सोचता है, लेकिन कोई भी व्यक्ति स्वयं को बदलने की नहीं सोचता.”
डार्विन ने कहा है कि जीव के अस्तित्व के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण विशेषता ताकत या बुद्धिमत्ता की नहीं बल्कि परिवर्तन के अनुकूलन की है.
प्रत्येक वस्तु प्रकट और विलुप्ति, परिवर्तित हो रही है – सतत परिवर्तन. पीड़ा इसलिए अस्तित्व में है क्योंकि हम विशिष्ट स्वरूप से मोहासक्त, हो जाते हैं. जब आप अणिका को समझते हुए स्वयं के प्रत्यक्षदर्शी अंश से जुड़ जाओगे, तो ह्रदय में परमानंद उत्पन्न हो जाएगा. पूरे इतिहास में संतों, महात्माओं और योगियों ने सर्वसम्मति से पवित्र मिलन का वर्णन किया है जो ह्रदय में घटित होता है. भले ही क्रॉस के सेंट जॉन का लेखन हो, रूमी का काव्य हो या भारत की तांत्रिक शिक्षाएं, इन सभी भिन्न शिक्षाओं ने ह्रदय के सूक्ष्म रहस्य़ को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है.
हृदय में शिव और शक्ति की संयुक्ति है. पुरुषोचित प्रभाव जीवन के सर्पिल में उतरता है और स्त्रीे-सुलभता परिवर्तन के प्रति समर्पण करती है. इन सबका दर्शन और बिना शर्त उनकी स्वीकृति. अपना हृदय उद्घाटित करने के उपक्रम में आपको परिवर्तन भी स्वीकार करना होगा. इस ठोस प्रतीत होने वाले संसार में रहने के लिए इसके साथ नृत्य करें, इसमें शामिल हों, पूर्ण रूप में जिए, पूर्णतः प्रेम करें, लेकिन यह भी जानें कि यह नश्वर है और अंततोगत्वा सभी रूपाकार समाप्त या परिवर्तित हो जाते हैं. परमानंद वह ऊर्जा है जो नीरवता के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाती है. यह चेतना से सभी विषय-वस्तुओं को हटाने से आती है. नीरवता से उत्पन्न यह परमानंद ऊर्जा की विषयवस्तु ही चेतना है. ह्रदय की नई चेतना. चेतना जो सभी प्राणियों से संबद्ध है.
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