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Wednesday 14 June 2017

RLV TD : भारत का अपना अंतरिक्ष शटल, इसरो की सफ़लता

भारत ने अंतरिक्ष की दुनिया में एक कदम और बढ़ाते हुए सोमवार 23 मई 2016 को इतिहास रच दिया। दरअसल, (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) ने दोबारा इस्तेमाल लायक स्वदेशी स्पेसशटल को सोमवार को लांच कर दिया। इसे करीब सुबह सात बजकर पांच मिनट पर एक खास प्रक्षेपण यान (आरएलवी) को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित किया गया।
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6.5 मीटर लंबे ‘विमान’ जैसे दिखने वाले यान का वजन 1.75 टन है। RLV-TD का मुख्य लक्ष्य पृथ्वी की कक्षा में उपग्रह को पहुंचाना और फिर वायुमंडल में लौट आना है। इसे दोबारा प्रयोग में लाए जा सकने वाले रॉकेट के विकास की दिशा में एक बहुत प्रारंभिक कदम बताया जा रहा है।
आपको बता दें कि फिर से  पुन:प्रयोग किए जा सकने वाले प्रक्षेपण यान के विचार को बड़े देश अमरीका और रूस खारिज कर चुके हैं, लेकिन इंजीनियरों का मानना है कि उपग्रहों को कक्षा में पहुंचाने की लागत को कम करने का यही उपाय है। अमरीकी अंतरिक्ष संस्थान नासा का स्पेस शटल कार्यक्रम समाप्त हो चुका है, जबकि रूस का स्पेस शटल कार्यक्रम ’बुरान’ एक प्रक्षेपण से आगे नही बढ़ा।
अंतरिक्ष मे उपग्रह या मानव का प्रक्षेपण बहुत ही मंहगा कार्यक्रम होता है। मानव के चंद्रमा के अवतरण के पश्चात , इंजीनियरो, नेताओ और अंतरिक्ष वैज्ञानिको का पुनः पुनः प्रयोग किये जा सकने वाले अंतरिक्षयानो के अभिकल्पन और निर्माण का सपना रहा है। वे चाहते है कि किसी विमान की तरह अनेक उड़ान भरने योग्य अंतरिक्षयानो का निर्माण किया जा सके जिसे सैन्य या नागरी सेवाओं के लिये प्रयोग किया जा सके। इस क्षेत्र मे अमरीकी अंतरिक्ष शटल ही सफ़ल रहे है लेकिन उसमे भी कई परेशानीयाँ और दुर्घटनाये हुयी थी। चैलेंजर और कोलंबीया अंतरिक्ष शटल की दुर्घटनाओं मे कई अंतरिक्ष यात्री मारे गये थे जिसमे भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला का समावेश है। अमरीकी अंतरिक्ष शटल कार्यक्रम को 2011 मे बंद कर दिया गया था। अंतरिक्ष शटल कार्यक्रम के पश्चात इस क्षेत्र मे एक रिक्तता आ गयी थी, नासा अंतरिक्ष कैप्सुल ओरायन पर कार्य कर रहा है, तथा उन्होने स्पेस शटल कार्यक्रम पर पुन: नजर डाली है।
भारतीय अंतरिक्ष संस्थान – इसरो ने 7 जनवरी 2015 को घोषणा की थी कि वे पुनप्रयोग किये जा सकने वाले अंतरिक्षयान तकनीक की जांच के लिये प्रयोग करेंगे। यदि यह अभियान सफ़ल रहता है तो इसरो के लिये यह एक बड़ी सलता होगी तथा इसरो अंतरिक्ष के क्षेत्र मे शिर्ष के संस्थानो मे शामिल हो जायेगा।

क्या है पुनःप्रयोग किये जा सकने वाले अंतरिक्ष यान (Reusable Launch Vehicle)?

RLV TD का माडेल
RLV TD का माडेल
पुनःप्रयोग किये जा सकने वाले अंतरिक्ष यान (RLV) किसी विमान का अंतरिक्ष स्वरूप होते है। सामान्य तौर पर वे उर्ध्वाधर दिशा(vertically) मे किसी राकेट की पीठ पर सवार होकर उड़ान भरते है तथा किसी विमान के जैसे ग्लाईड करते हुये जमीन पर वापीस आते है। पृथ्वी पर लौटते समय वे किसी उड़ान पट्टी पर लैंड कर सकते है या सागर के जल मे गीर सकते है। इन RLV मे विमान के जैसे पंख होते है जो उसकी दिशा के नियंत्रण मे सहायता करते है।
किसी RLV का मुख्य लाभ उन्हे एकाधिबार प्रयोग मे लाना है, जिसमे उन्हे दोबारा उड़ान भरने मे न्युनतम लागत आये। इन यानो के प्रक्षेपण के लिये प्रयुक्त राकेटो को भी पुन:प्रयोग करने के लिये बनाया जा सकता है। एक सफ़ल RLV अंतरिक्ष यान की लागत को बहुत कम कर सकता है और अंतरिक्ष उड़ानो को सबकी पहुंच मे ला सकता है।

RLV की दिशा मे भारतीय परिप्रेक्ष्य :

इसरो का RLV-TD अभियान एक विमान के जैसा पुनप्रयोग किया जा सकने वाला यान है को एक चरण वाले राकेट से प्रक्षेपित होगा। इस अभियान की समाप्ती हिंद महासागर मे यान के उतरने से होगी।
राकेट इस यान को 6 मैक तक की गति तथा 100 किमी तक की उंचाई देगा। इस उंचाई पर पहुंचने के पश्चात यह यान वातावरण मे पुन: प्रवेश करेगा तथा उड़ान भरते हुये बंगाल की खाड़ी मे पानी पर उतर जायेगा। यह यान अपनी अधिकतम उंचाई पर 5 मिनट तक रहेगा और उसके बाद वातावरण मे पुन:प्रवेश करेगा।

RLV के विकास के दौरान किये जाने वाले भिन्न प्रयोग :

  1. हायपरसोनिक उड़ान प्रयोग [Hypersonic Flight Experiment (HEX)]: सबसे पहला प्रयोग यान का प्रक्षेपण है, जिसे 23 मई 2016 को सफ़लता पुर्वक संपन्न किया गया। RLV को एक चरण वाले ठोस इंधन के राकेट से प्रक्षेपित किया गया और उसे अंतरिक्ष मे छोड़ दिया गया। प्रक्षेपण राकेट अंतरिक्ष यान से अलग होकर सागर मे गिर गया जबकी अंतरिक्ष यान स्वतंत्र रूप से ग्लाईड करते हुये किसी विमान की तरह स्वतंत्र रूप से सागर मे उतरा।
  2. लैंडिंग प्रयोग [Landing Experiment (LEX)]: दूसरे प्रयोग मे RLV के टर्बोफ़ैन इंजन की जांच होगी। RLV-TD को HEX प्रयोग के जैसे ही प्रक्षेपित किया जायेगा, यह यान वातावरण मे हायपरसोनिक गति से प्रवेश करेगा तथा एअरोडायनेमिक रूप से अपनी गति कम करेगा। उसके पश्चात यान प्रक्षेपण स्थल की ओर मुड़ेगा और 0.8 मैक गति पर अपने टर्फ़ोफ़ैन इंजन को प्रारंभ करेगा। इसके पश्चात 0.6 मैक गति से वह किसी विमान की तरह उड़ान पट्टी पर उतरेगा।
  3. वापसी उड़ान प्रयोग [Return Flight Experiment (REX)]: तिसरे प्रयोग मे RLV-TD को पृथ्वी की कक्षा मे प्रविष्ट करा कर पृथ्वी पर विमान के जैसे उड़ान पट्टी पर वापिस लाया जायेगा।
  4. स्क्रेमजेट प्रणोदन प्रयोग [Scramjet Propulsion Experiment (SPEX)]: अंतिम प्रयोग मे RLV-TD मे स्क्रेमजेट प्रणोदन इंजन का प्रयोग किया जायेगा।
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RLV अंतरिक्ष यानो का भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम पर प्रभाव

RLV-TD अभियान केवल तकनीक प्रदर्शन अभियान नही है, यह अभियान भारत की अंतरिक्ष प्रक्षेपण मे तकनीकी दक्षता को दिखायेगा। साथ ही यह अभियान इसरो के एक बड़े दो चरणो वाले कक्षिय यान(two stage to orbit (TSTO) vehicle) के निर्माण का भाग है।
वर्तमान मे इसरो का उपग्रह के प्रक्षेपण मे सालाना बजट 300 करोड़ रूपये (48.7M USD) है। एक सफ़ल. RLV कार्यक्रम इन अंतरिक्षयानो की लागत को बहुत कम कर सकता है जिससे इसरो अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष बाजार मे अधिक प्रतिस्पर्धि हो जायेगा। इन जांच कार्यक्रम से भारत की तकनीकी क्षमताये विकसित होंगी और अंतरिक्ष के क्षेत्रो मे उसे भी एक अगुवा माना जायेगा।

इस अभियान की झलकीयाँ

  • यह स्पेस शटल रियूजेबल प्रक्षेपण व्हीकल-टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर[ RLV TD \आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित हुआ है। प्रक्षेपण व्हीकल स्पेस शटल को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर एक विमान की तरह वापस पृथ्वी पर लौट आया तथा इसे दोबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसरो के वैज्ञानिकों का मानना है कि पुनप्रयोग कियी जा सकने वाले अंतरिक्ष यान की मदद से इस इस तरह के अभियान में लगने वाले कुल खर्च का 10 गुना तक कम किया जा सकेगा। पुनप्रयोग की जानेवाली तकनीक मदद से अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले पेलोड की कीमत 2000 डॉलर/किलो (1.32 लाख/किलो) तक कम हो जाएगी। यान के आधुनिक संस्करण को मानव अंतरिक्ष अभियान मे प्रयोग किया जा सकेगा।
  • 70 किमी ऊपर जाएगा शटल :RLV TD की ये हाइपरसोनिक जांच उड़ान है। यान का प्रक्षेपण रॉकेट की तरह उर्ध्वाधर हुआ। इसकी स्पीड 5 मैक (ध्वनि से 5 गुना ज्यादा) थी। शटल को अंतरिक्ष में 70 किमी ऊपर ले जाया गया । शटल को कक्षा में स्थापित करने के बाद प्रक्षेपण वाहन ने 180 डिग्री मुड़कर बंगाल की खाड़ी में लैंड किया।
  • तैयार करने में लगा 6 साल का समय :यह पहली बार होगा जब किसी शटल को प्रक्षेपण करने के बाद प्रक्षेपण वाहन बंगाल की खाड़ी में बने आभासी (वर्चुअल) रनवे पर लैंड करेगा। इस रनवे को समुद्र तट से करीब 500 किमी दूर बनाया गया है। इसरो के वैज्ञानिकों ने बताया कि प्रक्षेपण व्हीकल RLV TD को पानी पर तैरने के लिहाज से डिजाइन नहीं किया गया। वैज्ञानिकों ने बताया कि 45 किमी की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद बूस्टर अलग हो जाएंगे और प्रक्षेपण वाहन शटल को 70 किमी तक ले जाएगा। फिलहाल ये टेस्टिंग है। पहली उड़ान का वजन 1.7 टन है और इसको तैयार करने में करीब 6 साल का समय लगा।
  • इसरो ने तय समय से पहले शुरू किया काम : इसरो ने इस स्पेस शटल के लिए 15 साल पहले सोचा था। लेकिन इस पर काम 5 साल पहले ही शुरू कर दिया है। 6.5 मीटर लंबे प्लेन की तरह दिखने वाले स्पेसक्राफ्ट का वजन 1.75 टन होगा। स्पेस शटल और प्रक्षेपण वाहन पर जहाज, उपग्रह और रडार से नजर रखी जाएगी।

RLV स्पेस शटल की खासियत

  1. ये एक पुनप्रयोग किया जा सकने वाला प्रक्षेपण यान है। इसरो पहली बार ऐसी अंतरिक्ष यान प्रक्षेपण कर रहा है। जिसमें डेल्टा पंख(विंग्स) होंगे।
  2. प्रक्षेपण के बाद ये अंतरिक्ष यान बंगाल की खाड़ी में वापस उतर आएगा। इस अंतरिक्ष यान के बनने में 5 साल का समय लगा और 95 करोड़ रुपये का खर्च आया है।
  3. ये उड़ान इस अंतरिक्ष यान की हायपर सोनिक प्रयोग गति पर वातावरण मे पुनः प्रवेश की तीव्र उष्मा को झेल पाने की क्षमता का आकलन करेगी।
  4. इस अंतरिक्ष यान को बनाने में 600 वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने दिन-रात की मेहनत की है। इस प्रयोग के बाद इस स्केल मॉडल को बंगाल की खाड़ी से बरामद नहीं किया जा सकेगा। क्योंकि इसे पानी में तैरने लायक नहीं बनाया गया है।
  5. परीक्षण के दौरान इस बात की पड़ताल की जाएगी कि ये अंतरिक्ष यान ध्वनि की गति से 5 गुना तेज गति पर ग्लाइड और नेविगेट करने में सक्षम है या नहीं। इसरो ने इसे डेल्टा विंग के सहयोग से तैयार किया है।
  6. यह अंतरिक्ष में जाने के बाद दोबारा धरती पर एक विमान की तरह उतर सकेगा और इसका दोबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा।
  7. इसकी मदद से उपग्रह को प्रक्षेपण करने में आने वाली कीमत में काफी कमी आ जाएगी। इस यान को अंतरिक्ष में मानव मिशन के दौरान भी इस्तेमाल लाया जा सकेगा।
  8. परीक्षण के दौरान इस हाइपरसोनिक जांच उड़ान को एक राकेट के साथ सीधा जोड़ा जाएगा। करीब 70 किमी की ऊंचाई के बाद यह पृथ्वी के वातावरण में दोबारा अपनी एंट्री करेगा और एक यान की तरह ही लैंड करेगा। इस पूरे परीक्षण में करीब दस मिनट का समय लगेगा। इस परीक्षण को लेकर इसरो काफी उत्साहित है। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के डायरेक्टर के सिवन का कहना है कि इस परीक्षण के बाद इसको पूरी तरह से तैयार होने में करीब दस वर्ष तक का समय लग जाएगा।

परीक्षण का उद्देश्य

  1. आरएलवी-टीडी को समुद्र से बरामद नहीं किया जा सकेगा। पानी के संपर्क में आने पर यह वाहन बिखर जाएगा, क्योंकि इसकी डिजायनिंग तैरने के अनुकूल नहीं है।
  2. इस प्रयोग का उद्देश्य इसे ध्वनि की गति से पांच गुना वेग पर एक निश्चित पथ से उतारना है। पोत, उपग्रह और रडार इसके अंतरिक्ष से लौटने का निरीक्षण करेंगे। इस प्रयोग में यान में कोई निचला आधार नहीं है, इसलिए इसे जमीन पर वापस नहीं उतारा जा सकता।
  3. अंतरिक्ष यान को वापस लौटाना वैज्ञानिकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती का काम होता है। हवा से पैदा होने वाला घर्षण इसके बाहरी हिस्से का तापमान 5000-7000 डिग्री सेल्सियस कर देता है।
  4. इससे निपटने के लिए वैज्ञानिकों ने बेहद हल्की और ऊष्मारोधी सिलिका टाइलों का प्रयोग किया है।
  5. यान के आगे के हिस्से को विशेष कार्बन-कार्बन संरचना से बनाया गया है, जो उच्च तापमान को सह सकता है।
  6. ये ऊष्मारोधी टाइलें अमेरिकी शटल कोलंबिया में विफल हो गई थीं। इसके चलते 2003 में कल्पना चावला की मृत्यु हो गई थी। इसी वजह से इसरो ने आरएलवी के ऊष्मीय प्रबंधन में भारी जोर दिया है।
  7. स्पेस शटल की कोशिश करने वाले चंद देशों में अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान शामिल हैं। अमेरिका ने अपना स्पेस शटल 135 बार उड़ाया। वर्ष 2011 में उसकी अवधि खत्म हो गई।
  8. रूस ने एक ही स्पेस शटल बनाया। वह वर्ष 1989 में एक ही बार अंतरिक्ष में गया। इसके बाद फ्रांस और जापान ने कुछ प्रायोगिक उड़ानें भरीं। चीन ने कभी स्पेस शटल के प्रक्षेपण का प्रयास नहीं किया।

इसरो की अब तक की उपलब्धि

  1. 1975 में पहले भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट का प्रक्षेपण।
  2. 1976: उपग्रह के माध्यम से पहली बार शिक्षा देने के लिए प्रायोगिक कदम।
  3. 1979: एक प्रायोगिक उपग्रह भास्कर-1 का प्रक्षेपण। रोहिणी उपग्रह का पहले प्रायोगिक परीक्षण यान एस एल वी-3 की सहायता से प्रक्षेपण असफल।
  4. 1980: एस एल वी-3 की सहायता से रोहिणी उपग्रह का सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापन।
  5. 1981: ‘एप्पल’ नामक भूवैज्ञानिक संचार उपग्रह का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण। नवंबर में भास्कर-2 का प्रक्षेपण।
  6. 1982: इन्सैट-1 का प्रक्षेपण और सितंबर अक्रियकरण।
  7. 1983: एस एल वी-3 का दूसरा प्रक्षेपण। आर एस- डी2 की कक्षा में स्थापना। इन्सैट-1B का प्रक्षेपण।
  8. 1984 : भारत और सोवियत संघ द्वारा संयुक्त अंतरिक्ष अभियान में राकेश शर्मा का पहला भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनना।
  9. 1987: एएसएलवी का SROSS-1 उपग्रह के साथ प्रक्षेपण।
  10. 1988: भारत का पहला दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस-1B का प्रक्षेपण. इन्सैट-1C का जुलाई में प्रक्षेपण। नवंबर में परित्याग।
  11. 1990: इन्सैट-1B का सफल प्रक्षेपण।
  12. 1991: अगस्त में दूसरा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1B का प्रक्षेपण।
  13. 1992: SROCC-C के साथ एएसएलवी द्वारा तीसरा प्रक्षेपण मई महीने में। पूरी तरह स्वेदेशी तकनीक से बने उपग्रह इन्सैट-2 का सफल प्रक्षेपण।
  14. 1993: इन्सैट-2B का सफल प्रक्षेपण। पीएसएलवी द्वारा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1E का दुर्घटनाग्रस्त होना।
  15. 1994: एसएसएलवी का चौथा सफल प्रक्षेपण।
  16. 1995: दिसंबर महीने में इन्सैट-2C का प्रक्षेपण। तीसरे दूर संवेदी उपग्रह का सफल प्रक्षेपण।
  17. 1996: तीसरे भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आईआरएस एस-P3 का पीएसएलवी की सहायता से मार्च महीने में सफल प्रक्षेपण।
  18. 1997: जून महीने में प्रक्षेपित इन्सैट-2D का अक्टूबर महीने में खराब होना। सितंबर महीने में पीएसएलवी की सहायता से भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1 का सफल प्रक्षेपण।
  19. 1999: इन्सैट-2E इन्सैट-2 क्रम के आखिरी उपग्रह का फ्रांस से सफल प्रक्षेपण। भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-P4 श्रीहरिकोटा परिक्षण केन्द्र से सफल प्रक्षेपण। पहली बार भारत से विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण : दक्षिण कोरिया के किटसैट-3 और जर्मनी के डी सी आर-टूबसैट का सफल परीक्षण।
  20. 2000: इन्सैट-3B का 22 मार्च, 2000 को सफल प्रक्षेपण।
  21. 2001: जीएसएलवी-D1 का प्रक्षेपण आंशिक सफल।
  22. 2002: इन्सैट-3C का सफल प्रक्षेपण। पीएसएलवी-C4 द्वारा कल्पना-1 का सितंबर में सफल प्रक्षेपण।
  23. 2004: जीएसएलवी एड्यूसैट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण।
  24. 2008: 22 अक्टूबर को चन्द्रयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
  25. 2013: 5 नवम्बर को मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
  26. 2014: 24 सितम्बर को मंगलयान (प्रक्षेपण के 298 दिन बाद) मंगल की कक्षा में स्थापित, भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी-डी5) का सफल प्रक्षेपण (5 जनवरी 2014), आईआरएनएसएस-1बी (04 अप्रैल 2014) व 1सी (16 अक्‍टूबर 2014) का सफल प्रक्षेपण, जीएसएलवी एमके-3 की सफल पहली प्रायोगिक उड़ान(18 दिसंबर 2014)
  27. 2015: 29 सितंबर को खगोलीय शोध को समर्पित भारत की पहली वेधशाला एस्ट्रोसैट का सफल प्रक्षेपण किया।

विदेशों पर निर्भरता कम हुयी

क्रायोजेनिक इंजन

सोवियत संघ के साथ भारत के बूस्टर तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का अमरीका द्वारा परमाणु अप्रसार नीति की आड़ में काफी प्रतिरोध किया गया था। 1992 में इसरो और सोवियत संस्था ग्लावकास्मोस पर प्रतिबंध की धमकी दी गई।
इन धमकियों की वजह से सोवियत संघ ने सहयोग से अपना हाथ पीछे खींच लिया था। सोवियत संघ क्रायोजेनिक लिक्वीड राकेट इंजन तो भारत को देने के लिये तैयार था लेकिन इसके निर्माण से जुड़ी तकनीक देने को तैयार नही हुआ जो भारत सोवियत संघ से खरीदना चाहता था।
इस असहयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत अमरीकी प्रतिबंधों का सामना करते हुए भी इसरो ने बीस साल के अथक प्रयासों के बाद स्वदेशी ताकतवर क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण करने में सफलता हासिल कर ली।
छोटे उपग्रहों को अतंरिक्ष में स्थापित करने में सक्षमः भारत पीएसएलवी से छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने में महारत हासिल कर चुका है, मंगलयान इसका प्रमाण है। इसका सीधे-सीधे अर्थ यह है कि भारत दो टन या इससे अधिक वजनी उपग्रहों के प्रक्षेपण में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गया है। दुनिया के चुनिंदा देशों जैसे अमेरिका, रूस, जापान, फ्रांस और चीन के पास ही ऐसी तकनीकी थी।

जीपीएस प्रणाली

भारत के पास अब अपना ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) है। दरअसल, कारगिल युद्ध के समय भारत ने अमेरिका से जीपीएस सेवा मांगी थी। उस समय अमेरिका ने इससे इनकार कर दिया था। इसके बाद से प्रयास में लगे भारत को आखिरकार अमेरिका के जीपीएस के मुकाबले अपना रीजनल पोजिशनिंग सिस्टम (आरपीएस) डेवलप करने में कामयाबी मिल गई है। इसरो ने श्रीहरिकोटा सेंटर से IRNSS प्रोजेक्ट का आखिरी (7th) नेविगेशन सैटेलाइट लॉन्च किया। इसका नाम NAVIC (नाविक) रखा गया है। अब जीपीएस को लेकर देश को विदेशों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है।

2025 तक इसरों के सामने चुनौतियां

  1. ग्रामीण संयोजन, सुरक्षा आवश्यकताएं और मोबाइल सेवाओं के लिए उपग्रह आधारित संचार और नौसंचालन प्रणालियां
  2. प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, मौसम और जलवायु परिवर्तन के लिए उन्नत प्रतिबंबन क्षमता
  3. सौर प्रणाली और ब्रह्मांड को बेहतर समझने के लिए अंतरिक्ष विज्ञान अभियान
  4. ग्रह अन्वेषण
  5. भारी उत्थापक प्रमोचक का विकास
  6. समानव अंतरिक्ष उड़ान
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