मुश्किल सवाल है. एक जमाना था जब लोग ऐसा मानते थे की सूरज हमारी पृथ्वी के आसपास घूमता हैं, और यह सिद्धांत पर लोग विश्वास भी करते थे. क्योंकि उस वक़्त सूरज पूर्व दिशा से अपनी जगह बदल कर पश्चिम दिशा में स्थानांतरित होता था. इसलिए यह बात मानने में कोई शक ही नहीं था की सूरज पृथ्वी के आसपास घूमता हैं. लेकिन बाद में हमे पता चला की ऐसा नहीं हैं. वास्तविकता कुछ अलग ही थी.
तो क्या हम कभी भी हमारी सच्ची वास्तविकता को कभी भी जान पाए हैं या जान पाएगे? क्या हम कोई ऐसी दुनिया में फ़स गए हैं जहाँ पर हम कुछ भी सबसे अच्छी तरह करें वह करीब करीब सच हो सकता हैं, लेकिन पूरी तरह से कभी नहीं. उदहारण के लिए, हम दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक उपयोगी थ्योरीयों को खोज रहे हैं, लेकिन वास्तव में हम सच्चे उद्देश्यवाली वास्तविक हकीकत तक कभी भी नहीं पहुँच पाए हैं. क्या किसी भी चीज़ के पीछे का विज्ञान या कारण हम दृढ़तापूर्वक साबित कर सकते हैं? जैसे की, क्या आपके दोस्त, आपकी उंगलियाँ और यह ब्लॉग वास्तव में आपके मन के बाहर मौजूद हैं? क्या आप किसी मेट्रिक्स में मौजूद हैं? या फिर यह सब सिर्फ दिमाग के अन्दर की एक दुनिया हैं?
दिमाग के अंदर की दुनिया? चलिए एक बार दिमाग के अन्दर घुसकर देख लेते हैं. तस्वीर में दिखनेवाली जलावन कोशिकाओं की शाखाओं के जंगलों की तरह दिखनेवाली यह चीज़ दिखने में तो गन्दी लगती हैं लेकिन यह आपकी पहली सैलरी की ख़ुशी भरी याद हो सकती हैं. घटना की एक जीती जगती निशानी. तो क्या अगर में आपके दिमाग के अन्दर घुसकर इस कोशिका को काट दु तो आपकी उस सैलरी की याद को आपके दिमाग में से मिटा सकता हूँ? क्या में आपके साथ कुछ ऐसा कर सकता हूँ की आप येही भूल जाए की आपकी उंगलियाँ कहाँ पर हैं? जी नहीं, क्योंकि हमारी स्मृति किसी एक कोशिका के संबंध में संग्रहित नहीं होती. वे हमारे समग्र दिमाग में स्टोर होती हैं. आपकी पहली सैलरी वाली याद समग्र दिमाग के नेटवर्क में स्टोर होती हैं. तो सवाल यह हैं की आप कितनी यादों को अपने दिमाग के अन्दर फिट कर सकते हैं. आपके दिमाग की स्टोरेज कैपेसिटी क्या हैं? नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्याले के पॉल रेबेर के मुताबिक हम दिमाग में लगभग 2.5 पेटाबाइट जितनी इनफार्मेशन को स्टोर कर सकते हैं. इतनी जगह में आप किसी टीवी चेनल को 300 सालों तक रिकॉर्ड कर सकते हैं.
आपके पास जो भी कुछ हैं या आप जो भी कुछ करते हैं, वह सब आपका दिमाग हैं. यहाँ तक की अगर आप कोई यंत्र इस्तेमाल करते हैं जैसे की दूरबीन या गिटार, वो भी आपका मन ही है. सभी जानकारियों के लिए अंतिम पड़ाव अंततः आप ही है. अपने मस्तिष्क में आप अकेले ही रहते हैं. दूसरा कोई भी इस जगह पर नहीं पहुँच सकता हैं. “यहाँ पर और भी कुछ मौजूद हैं”, तकनीकी रूप से जो चीज़ इस बात को साबित करने के लिए असंभव बनाती है, उसको egocentric predicament कहा जाता हैं. आपके दिमाग की बाहर की दुनिया में जो भी कुछ आप जानते हैं वह आपके दिमाग के अन्दर बनाई गई दुनिया पर निर्भर करता हैं.
चार्ल्स सैंडर्स पियर्स के लिए यह इतना मायने रखता था की उन्होंने दो चीजों के बिच में एक लाइन बना दी थी : (1) ब्रह्माण्ड वास्तव में जिस तरह का हैं, जिसे वे phaneron कहते थे और (2) हमारी इंद्रियों और शरीर के माध्यम से फ़िल्टर की हुई दुनिया या ब्रह्माण्ड, जो जानकारी केवल हम प्राप्त कर सकते हैं. आपके मन में जो आपके द्वारा बनाई गई दुनिया हैं, आप उसके ही हिसाब से अपने कार्यों को करते और याद रखते हैं.
आपका यह मानना की सिर्फ आप ही हकीक़त हैं, और बाकि सब, भोजन, ब्रह्माण्ड, आपके दोस्त सभी आपके मन की उपज हैं, उसको solipsism (आत्मवाद) कहा जाता है. यह एक भयानक अनुभूति हैं जिसके साथ निपटने के लिए हमेशां हमारे पास कोई भी रास्ता नहीं होता. एक आत्मवादी को यह समझाने के का ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है कि बाहर की दुनिया वास्तविक है.
इसका विपरीत नजरिया अधिक स्वस्थ और कॉमन है. इसे (realism) यथार्थवाद कहा जाता है. यथार्थवाद के मुताबिक आपके बाहर की दुनिया खुद के phaneron के लिए स्वतंत्र रूप से मौजूद है. चट्टानें और सितारे उनको देखने और अनुभव करने के लिए आपके वहाँ न होने पर भी वहाँ पर ही मौजूद रहेंगी.
लेकिन आप यह नहीं जान सकते की यथार्थवाद सच हैं भी या नहीं. उसके लिए आप जो भी कुछ कर सकते हैं वहा हैं उस पर विश्वास करना. हमारे सामने ब्रह्माण्ड के ऐसे कई रहस्य हैं. हम सब कभी भी उनको समजने के लिए सक्षम नहीं बन पाएगे. हम हमारे किसी सवाल का एक सहीं और वास्तविक जवाब तक नहीं दे सकते, लेकिन उन तक पहुँचने की कोशिश कर सकते हैं. उस सवाल के जवाब की खोज में कुछ अंतर तक पहुँचकर हम उसको अपना जवाब मान लेते हैं. लेकिन सच्ची वास्तविकता को कभी भी नहीं जान सकते हैं.
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