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Wednesday, 14 June 2017

धरती पर उतरेगा सूर्य

भारत सहित कई देश मिल कर फ्रांस में एक ऐसा महत्वाकांक्षी रिएक्टर बना रहे हैं, जो सूर्य को धरती पर उतारने के समान होगा. किंतु, इसमें अब अपेक्षा से अधिक धन लगने जा रहा है, जो उसके भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा सकता है.
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सपना नाभिकीय संलयन का
इस समय के परमाणु बिजलीघरों में बिजली पैदा की जाती है नाभिकीय विखंडन से. इसके लिए मुख्यतः यूरेनियम-235 के नाभिक को आम तौर पर न्यूट्रॉन कणों की बौछार द्वारा तोड़ा जाता है. यूरेनियम-235 के नाभिक में कुल 92 प्रोटोन और 143 न्यूट्रॉन कण होते हैं. हर विखंडन से नाभिक में प्रोटोन और न्यूट्रॉन को बाँध कर एकजुट रखने वाली 200 मिली इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर ऊर्जा मुक्त होती है. इसी ऊर्जा से बिजली पैदा की जाती है.
Fusionsreaktor Iter wird gebaut in Cadarache
दक्षिणी फ्रांस में स्थित कदाराश
वैसे तो यूरेनियम-235 के नाभिक को ताप-नाभिकिय विधि से भी विखंडित किया जा सकता है या यूरेनियम की जगह प्लूटोनियम-239 का भी उपयोग हो सकता है, लेकिन इसका प्रचलन बहुत कम है. नाभिक का चाहे जिस तरह विखंडन किया जाये, उससे स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक ऐसी अदृश्य किरणें भी पैदा होती हैं, जिन्हें रेडियोधर्मी विकिरण कहा जाता है. रिएक्टर में पैदा होने वाले कचरे के बिल्कुल निरापद निपटारे का भी किसी देश के पास कोई उपाय नहीं है. यही सब नाभिकीय विखंडन पर आधारित बिजलीघरों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण हैं.
इसीलिए वैज्ञानिक दशकों से सपने देख रहे हैं कि ऐसा रिएक्टर बनाया जाये, जिसमें परमाणु नाभिकों का विखंडन होने के बदले अनका संयोजन या संलयन हो. सूर्य में ऐसा ही होता है. इसीलिए सूर्य ऊर्जा का अक्षय भंडार है. सूर्य के भीतर की प्रचंड गर्मी से हाइड्रोजन के नाभिक लगातार आपस में जुड़ते रहते हैं. इससे एक तरफ़ हीलियम गैस बनती है और दूसरी तरफ उससे कहीं अधिक ऊर्जा मुक्त होती है, जितनी नाभिकीय विखंडन से पैदा हो सकती है.
Schaubild zu Iter, Fusionsreaktor wird in Cadarache gebaut
संलयन रिएक्टर का मॉडल
सबसे बड़ी विज्ञान परियोजना
वैज्ञानिक सोचते हैं कि नाभिकीय संलयन कहलाने वाली यह क्रिया यदि सूर्य सहित सभी ताकरमंडलों में संभव है, तो पृथ्वी पर मनवनिर्मित नये प्रकार के रिएक्टरों में भी संभव होनी चाहिये. इसे कर दिखाने के लिए दक्षिणी फ्रांस के कदाराश (Cadarache) नामक स्थान पर International Tokamak Experimental Reacter, संक्षेप में ITER नाम से एक संलयन रिएक्टर बानाया जाना है. जर्मनी के नोर्बेर्ट होल्टकाम्प इस परियोजना के तकनीकी निदेशक हैं:
"ITER इस समय संसार की सबसे बड़ी विज्ञान परियोजना है. उसे दिखाना है कि परमाणु नाभिकों के संलयन से ऊर्जा पैदा की जा सकती है, यानी सूर्य को ज़मीन पर उतारा जा सकता है."
परियोजना में भारत भी सहभागी
संसार की इस सबसे मंहगी विज्ञान परियोजना में यूरोपीय संघ और अमेरिका के अतिरिक्त भारत, रूस, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया भी शामिल हैं. दस साल के निर्माणकार्य के बाद इस परियोजना का संलयन रिएक्टर 2018 में बन कर तैयार होना है.

07.07.2006 PZ iter
ITER रिएक्टर

कोई 30 मीटर की ऊँचाई वाला रिएक्टर किसी पिंजड़े के आकार में लगे कई अत्यंत शक्तिशाली चुंबकों की सहायता से हाइड्रोजन गैस के एक मिश्रण को 15 करोड़ डिग्री सेल्ज़ियस तक गरम करेगा. यह मिश्रण हाइड्रोजन के ड्यूटेरियम (Deuterium) और ट्रीशियम (Tritium) कहलाने वाले दो आइसोटोपों से प्राप्त किया जायेगा, जिन्हें भारी पानी और बहुत भारी पानी भी कहा जाता है. इस अकल्पनीय तापमान पर ही हाइड्रोजन के नाभिक वह गति प्राप्त कर पाते हैं, जिस गति पर आपस में टकराने से वे जुड़ कर हीलियम का नाभिक बन सकते हैं.
"इस ऊँचे तापमान पर यदि उन्हें बार-बार टकराया जाये, तो वे एक-दूसरे के साथ गल-मिल जाते हैं. इससे अच्छी-ख़ासी ऊर्जा मुक्त होती है."
साफ़-सुथरी ऊर्जा
उनके जुड़ने से जो ऊर्जा मुक्त होगी, वह बिजली पैदा करने वाले टर्बाइन को चलायेगी. वैज्ञानिक कहते हैं कि संलयन रिएक्टर से प्राप्त ऊर्जा साफ़-सुथरी, अक्षय और निरापद होगी. उससे पर्यावरण या जलवायु को भी कोई हानि नहीं पहुँचेगी.
नाभिकीय संलयन के अब तक के प्रयोगों में कुछेक क्षणों के संलयन के लिए जितनी बिजली ख़र्च करनी पड़ती थी, वह संलयन से पैदा हुई बिजली की अपेक्षा कहीं कम होती थी. ITER संभवतः ऐसा पहला रिएक्टर होगा, जो सिद्धांततः खपत से कुछ अधिक ऊर्जा पैदा करेगा, हालाँकि उसकी सहायता से बनी बिजली की मात्रा फिर भी कहीं कम होगी. उसका वर्तमान डिज़ाइन ड्यूटेरियम और ट्रीशियम के आधा ग्राम मिश्रण से कोई 17 मिनट तक के लिए 500 मेगावाट बिजली पैदा कर सकने पर लक्षित है. इस दौरान वह जितनी ताप ऊर्जा पैदा करेगा, वह हाइड्रोजन को गरम करते हुए उसे प्लाज़्मा अवस्था में पहुँचाने में लगी ऊर्जा से 5 से 10 गुना अधिक होगी, लेकिन उससे बिजली नहीं पैदा की जायेगी.
प्रायोगिक रिएक्टर
ITER वास्तव में एक प्रायोगिक रिएक्टर है. उद्देश्य है यह देखना-जानना कि क्या हम भविष्य में एक ऐसा रिएक्टर बना सकते हैं, जो नाभिकीय संगलन द्वारा सतत बिजली पैदा कर सके. इसीलिए ITER का जीवनकाल केवल 20 वर्ष रखा गया है.
रिएक्टर की रूपरेखा 2001 में जब बनी थी, तब उस पर पाँच अरब यूरो ख़र्च आने का अनुमान लगाया गया था. लेकिन, यूरोपीय संघ के अलावा अमेरिका, रूस, चीन, जापान, भारत और दक्षिण कोरिया के इस परियोजना में शामिल होते-होते और निर्माणकार्य की हरी झंडी दिखाते-दिखाते नवंबर 2006 हो गया.
अनपेक्षित समस्याएँ
इस बीच वैज्ञानिकों का माथा ठनकने लगा है कि रिएक्टर अब तक की रूपरेखा के अनुसार नहीं बन सकता, क्योंकि 15 करोड़ डिग्री गरम हाइड्रोजन गैस वाला प्लाज़्मा रिएक्टर की दीवारों के लिए उससे कहीं ज़्यादा आक्रामक साबित हो सकता है, जितना पहले सोचा गया था. परियोजना के तकनीकी निदेशक नोर्बेर्ट होल्टकाम्प इससे काफ़ी चिंतित हैं:
"बात इतनी आसान नहीं है. इस विशाल निर्वात चैंबर में चुंबकीय कुंडलियाँ लगानी होंगी. इसके साथ और भी कई काम जुड़े हैं. चैंबर का डिजाइन बदलना पड़ेगा, ताकि कुंडलियाँ उसमें लग सकें. इस सब में अच्छा-ख़ासा पैसा लगेगा."
कई दूसरी जगहों पर भी मूल डिजाइन में संशोधन करने पड़ेंगे. इस बीच इस्पात, तांबे व अन्य धातुओं की क़ीमतें बहुत बढ़ गयी हैं. रिएक्टर संबंधी क़ानूनी अनुमतियाँ प्राप्त करना मँहगा और मुश्किल हो गया है. कहने का मतलब यह कि ITER की लागत पाँच से बढ़ कर दस अरब यूरो तक भी पहुँच सकती है, कहना है यूरोपीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण यूराटोम के शोधनिरीक्षक ओक्टावी क्विन्ताना काः
"परियोजना में शामिल सभी देशो को अपना योगदान बढ़ाना होगा. यूरोप क्योंकि लागत का क़रीब आधा ख़र्च उठा रहा है, इसलिए हमें यूरोपीय संघ के सभी 27 देशों को समझाना होगा कि ITER बनाया जाना कितना ज़रूरी है. हम उसे विफल होने ही नहीं दे सकते."
क्वियान्ताना का मानना है कि यूरोप इतनी महात्वाकाँक्षी परियोजना को कतई छोड़ नहीं सकता. इस रिएक्टर की संभावनाएँ इतनी बड़ी हैं कि यूरोप उसका लाभ उठाने से वंचित नहीं रहना चाहेगा. ऐसे में. स्वाभाविक है, कि भारत को भी अपना योगदान बढ़ाने के लिए कहा जायेगा.
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